बाबा नंद सिंह साहिब सिक्ख और सतिगुरु के सम्बन्ध के प्रति वचन करते हुए फ़रमाने लगे कि-
अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही भगवान श्री कृष्ण जी के चरणों में पहुँचे हैं। भगवान श्री कृष्ण विश्राम कर रहे थे, अर्जुन उनके चरणों में बैठकर प्रतीक्षा करने लगा। इतनी देर में दुर्योधन भी वहाँ पहुँच गये और श्रीकृष्ण जी के सिरहाने की ओर बैठ गये। दोनों उनके उठने की प्रतीक्षा करने लगे।
जिस समय भगवान श्रीकृष्ण ने नेत्र अपने खोले तो पहले उनकी दृष्टि अर्जुन पर पड़ी। फिर जब उन्होंने सिरहाने की ओर देखा तो वहाँ दुर्योधन को बैठे पाया।
उन्होंने दुर्योधन से पूछा कि : आपका कैसे आना हुआ।
दुर्योधन ने उत्तर दिया कि: गरीब निवाज़! युद्ध में हम दोनों में से आप किस पक्ष में हैं?
भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि: हम इस युद्ध में किसी के भी पक्ष में नहीं हैं। हम इस युद्ध में भाग नहीं लेंगे। निशस्त्र होकर केवल इस युद्ध को देखेेंगे।
फिर कहा: एक ओर अकेला मैं रहूँगा और दूसरी ओर मेरी सारी सेना व अस्त्र-शस्त्र होंगे।
दुर्योधन ने तत्पर होकर कहा: मैं युद्ध में आपकी कुछ सहायता मांगना चाहता हूँ।
भगवान श्रीकृष्ण फ़रमाने लगे कि: दुर्योधन, मेरी दृष्टि पहले अर्जुन पर पड़ी है, अतः माँगने का अधिकार पहले उसे है।
अर्जुन हाथ जोड़कर क्या माँग रहा है?
वह अपने निशस्त्र अकेले भगवान को माँग रहा है।
सिक्ख और गुरु के सम्बन्ध के प्रति बाबा नंद सिंह साहिब वचन कर रहे हैं कि-
अर्जुन माँग रहा है भगवान को और वह भी निशस्त्र भगवान को।
क्या मजाल है कि इस प्रसंग में अर्जुन का ध्यान भगवान श्रीकृष्ण की सेना की ओर गया हो।
यह सब देख कर दुर्योधन अति प्रसन्न हुआ। वह तो माँगना ही भगवान की सशस्त्र सेना को चाहता था।
पर, साधसंगत जी, जिस समय महाभारत के युद्ध क्षेत्र में खड़े होकर भगवान श्रीकृष्ण दोनों पक्षों की ओर देखते हैं, उस समय अर्जुन कुछ प्रश्न पूछने आरम्भ कर देता है।
इस प्रसंग को समझाते हुए पिताजी फ़रमाने लगे कि:
अर्जुन में कोई कमजोरी नहीं थी, अर्जुन तो बहुत ही सजग तथा सुलझा हुआ था जिसने केवल गुरु को ही माँगा, अपने सतिगुरु को ही माँगा है। उस समय अर्जुन जो प्रश्न कर रहा है जिस युक्ति से कर रहा है, उसका प्रयोजन क्या है?
उस समय अर्जुन ने वे सब प्रश्न पूछे हैं जो संसारिक बंधन में बंधा हुआ और अपनी बुद्धि से सोचने वाला एक नश्वर मनुष्य के मन में उपजते हैं।
वह भगवान श्रीकृष्ण का संपूर्ण प्रेम प्रश्नों के माध्यम से अपनी ओर आकर्षित करता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से प्रेम करते हैं.... वह यह सब किस प्रयोजन से कर रहा है?
वस्तुतः अर्जुन आने वाली सृष्टि और पीढ़ियों के मन में उठने वाले जितने भी प्रश्न हैं, वह उन सबका उत्तर भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से सुनना चाहता है।
पिताजी आगे कहने लगे कि-
उस प्रेम को अपनी ओर आकृष्ट करके अर्जुन श्रीमद् भगवद्गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम-प्रसाद को सबके लिए सुलभ करा रहा है। अर्जुन के उस प्रेम से आकृष्ट होकर भगवान श्रीकृष्ण क्या फ़रमा रहे हैं?
यह जो अहं (मैं) है, इसकी सोच ही मन की सोच है।जो मैं-मैं करता है, वह अपने मन की सोच के पीछे भागता है, वही मनमुख है।जो गुरु की सोच में है, गुरुमत में है, वह गुरु की आज्ञानुसार ही चलता है, गुरु की सोच में चलता है, उसकी अपनी कोई सोच नहीं होती।
सतिगुरु तो सिक्ख की अपनी सोच को खत्म करता है पर उससे भी पहले वह उसकी संसारिक माँगों, पदार्थों की इच्छाओं की तृष्णा और पदार्थों की प्रतिदिन की लालसाओं को निर्मूल कर देता है।उनके चित्त से ये लालसाएँ निकाल कर उन्हें अभय और स्वाधीन (आज़ाद) कर देता है। उनको अपने हुकम और ईश्वरेच्छा (रज़ा) में टिका देता है। फिर सतिगुरु की सोच में जब सिक्ख आ जाता है तो वह उसेईश्वरीय रुचि (भाणा) और इच्छा (रज़ा) के सांचे में ढाल देता है।