गृहस्थ मार्ग - सन्यासी कौन है?

 यह प्रसंग समस्त इलाही ज्योति बाबा नन्द सिंह जी महाराज भाग -3 में से ली गई है।  

बाबा नन्द सिंह जी महाराज स्वयं भले ही आजीवन जती-सती (ब्रह्मचारी) रहे, परन्तु उन्होंने दूसरों को सदैव गृहस्थ जीवन अपनाने का उपदेश दिया।  संसार के सभी महान त्यागियों के वह  शहंशाह रहे। उन्होंने सदैव दूसरों को सच्चाई, पवित्रता और ईमानदारी के उच्च सिद्धांतों का अनुकरण करते हुए अपनी रोज़ी-रोटी कमा कर जीवन यापन करने  का उपदेश दिया।  



 बाबा नन्द सिंह जी महाराज ने एक बार एक साखी सुनाई -

दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज का दरबार सजा है।  कुछ वान-प्रस्थियों की  एक मंडली वहां पहुंची तो बड़े सत्कार से उन्हें बिठाया गया। 

दीवान के बाद  उन्होंने कलगीधर पातशाह से एक प्रश्न किया -

क्या गृहस्थ आश्रम में भी मुक्ति मिल सकती है ?

सच्चे पातशाह ने फ़रमाया कि -

आप सभी ने अब गृहस्थ आश्रम  त्याग कर वान -प्रस्थ आश्रम अपना लिया है।  आप किन-किन वस्तुओं को त्याग  के आये हो ?

फिर स्वयं ही समझाते हुए फ़रमाया-

क्या आप अपने तन के सारे सुख त्याग दिए हैं ? 

 

तो उन्होंने उत्तर दिया- जी महाराज। 

दशमेश पिता- अपना धन भी त्याग दिया है ?

वान-प्रस्ठी - जी महाराज। 

दशमेश पिता- अपने मन की सोच, सहारे  और सुख भी त्याग दिए हैं? 

वान-प्रस्ठी - हाँ गरीब निवाज़, हम तन,मन,धन सब कुछ त्याग कर उस (प्रभु ) के सहारे निकल पड़े हैं।  


सच्चे पातशाह ने  शेष  बात अगले दिन करने का कह कर उन्हें रात्रि वहीं विश्राम करने को कहा। 

अगले दिन ब्रह्म-मुहूर्त में "आसा दी वार" का कीर्तन आरंभ हो गया।  सभी सिक्ख माई-भाई संगत इलाही कीर्तन का आनंद ले रही थी।  कई घंटों के उपरांत समाप्ति हुई।  चहुं-ओर  से संगत अपने घरों से परशादा (लंगर) अपने शीश पर उठा कर ला रही थी।  


गुरु साहिब वान-प्रस्थियों से पूछते हैं -

क्या देख रहे हो?

वान-प्रस्थियों ने आगे से उत्तर दिया -

गरीब निवाज़, दिव्य मनोहर कीर्तन रो रहा था।  सारी संगत कीर्तन में लीन थी।  

 गुरु  साहिब जी ने फ़रमाया-

यह सभी तो अपना मन गुरु को अर्पण कर चुके हैं।

फिर फ़रमाया- 

उन सिक्खों को देख रहे हो जो संगत के लिए अपने घर से परशादा ला रहे हैं।  यह अपना धन भी गुरु को अर्पण कर चुके हैं। 

आगे फ़रमाया- 

योगी  जी, कुछ दिन हुए हैं यहां एक भीषण युद्ध हुआ था।  जिस में धर्म की खातिर, सच की खातिर, ज़ुल्म का मुकाबला करते हुए कई सिक्ख वीर-गति को प्राप्त हुए थे।  गुरु की खातिर उन्होंने अपना तन भी अर्पण कर दिया था।  यह सिक्ख अपना सब कुछ (तन,मन,धन) अर्पण करके हर समय हमारी आज्ञा की प्रतीक्षा में रहते हैं।  

अब आप अपनी सुनाओ, आप अपना सब कुछ त्याग कर आये हो, आप की क्या अवस्था है?

 आप के  पास  यह जो चिप्पिआं (कमंडल ) हैं इन में क्या है?  

उन्होंने चिप्पिआं छुपाने की कोशिश की पर इस से पहले कि वो उन्हें छुपा पाते, सिक्खों ने चिप्पिआं पकड़ कर गुरु साहिब के समक्ष रख दीं। जब उन चिप्पिओं की लाख पिघलाई गयी तो उन में से अशर्फियाँ निकली। 

सच्चे पातशाह ने उन्हें देख कर  पूछा - यह किस लिए हैं ?

वान-प्रस्थियों के गुरु ने कहा - गरीब निवाज़, यह अशर्फियाँ हमने आपदा काल के लिए सहेज कर रखी हैं।  


अन्तर्यामी गुरु साहिब जी ने उनके भगवे चोले की और देखते हुए फ़रमाया  - 

आप के वस्त्र इतने भारी क्यों हैं ?

वह फिर घबरा गए।  जब सिक्खों ने देखा तो पाया कि भगवे-वस्त्रों की तह में पैसे सिले हुए थे। 

मुक्ति  के दाते, ब्रह्म-ज्ञान के प्रकाश, अज्ञान हर्ता, दसम गुरु नानक जी ने फिर अपने  मुबारिक मुखारबिंद से इस तरह ज्ञान की अमृत-वर्षा की-

यहां यह गृहस्थी  सिक्ख  अपना तन, मन, धन सब कुछ अर्पित करके आज्ञा में सावधान खड़े हैं।  परन्तु आप ने वान -प्रस्थ  होते हुए भी कुछ नहीं त्यागा।

न तो सेवकों ने अपने गुरु के समक्ष यह तीन चीज़ें अर्पित की हैं और न ही गुरु ने पारब्रह्म परमेश्वर के आगे। 

  गुरु को सम्बोधित करते हुए फ़रमाया-

तेरे सेवकों को तुझ पर कोई विश्वास नहीं है और न ही तुझे पारब्रह्म परमेश्वर पर। 


दशमेश पिता फिर उनसे पूछते हैं -

फिर सन्यासी कौन हुआ?

वास्तव में यह गृहस्थी सन्यासी हैं।  


बाबा नरिंदर सिंह जी ने बाबा जी ने यह साखी सुनाते हुए आगे  फ़रमाया-

ऐसे महान गुरु के, ऐसे प्यारे सिक्खों के लिए मुक्ति चरणों 

 की धूल समान है।  


भाई रतन सिंह जी ने एक दिन बताया कि-

बाबा जी की सेवा करते-करते मेरे और नत्था सिंह के मन में विचार आया कि बाबा जी की सेवा ही करते हुए जीवन व्यतीत करें, विवाह करवा के क्यों झंझट में फसें। 

अन्तर्यामी बाबा जी के पास हम दोनों ही खड़े थे। 

उन्होंने फ़रमाया- 

हमने आप को सन्यासी नहीं बनाना, क्योंकि गृहस्थ-मार्ग प्रधान है।   

शादी करनी है, शादी करके सेवा नहीं त्यागनी।  नेक जीवन व्यतीत करना है।  

गृहस्थ-जीवन में भी त्याग और कुर्बानी के अवसर मिलते हैं। ऐसे अवसर आने पर गुरु साहिबान के दिव्य जीवन वृतांत को स्मरण करो। 

गुरु गोबिंद सिंह साहिब ने तो अवसर आने  पर अपना सारा परिवार ही न्योछावर कर दिया था।  

 

बाबा नन्द सिंह जी महाराज ने एक बार फ़रमाया कि -

गृहस्थी की मेहनत और ईमानदारी की नेक कमाई अमृत समान है और सन्यासी के लिए पैसा ज़हर है। 


गुरु नानक दाता बख्श  लै, 

बाबा नानक बख्श लै। 

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