श्रदालु सिक्ख भाई गोइन्दा जी
एक दिन बाबा नंद सिंह जी महाराज ने निम्नलिखित पवित्र घटना का उल्लेख किया-एक जंगल में वृक्ष के नीचे एक श्रद्धालु सिक्ख भाई गोइन्दा (कोठाजी) समाधि में लीन था। भक्ति में लीन वह दिन, महीनों और वर्षों की गिनती तक भूल चुका था। यहाँ तक कि उसे अपने-आप की भी सुध नहीं थी। अपने प्रिय सतिगुरु के प्रेम में मस्त वह गुरु-चेतना में पूरी तरह लीन था। सतिगुरु के दर्शन पाने की उसकी प्रबल इच्छा और व्याकुलता इस सीमा तक पहुँच गई कि परमप्रिय, परमदयालु व अन्तर्यामी सतिगुरु अपने-आप को अब और रोक नहीं सके।
घोड़े पर सवार होकर श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब अपने कई सिक्खों के साथ उस पवित्र स्थान की ओर तेज़ी से चल पड़ते हैं, जहाँ उनका प्यारा सिक्ख कई वर्षों से ईश्वर-स्वरूप छठे गुरु नानक जी के दर्शनों की एक झलक पाने के लिए आतुर था। श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब अपने प्रिय भक्त को आदेश देते हैं कि प्रिय दर्शनों की जिस प्रबल इच्छा के पूरा होने की प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने भक्ति में लीन रह कर अनेक वर्ष साधना की है, अब वह इस को संतुष्ट करें, अपनी इच्छा को पूरा होते हुए देखें। श्री सतिगुरु के आशीर्वाद से अंधे गोइन्दा को नेत्र-ज्योति मिल गयी। दीर्घकाल की भक्ति-समाधि से जाग कर गोइन्दा दौड़ पड़े और सीधे सतिगुरु के पवित्र चरणों में आ गिरे। तब उन्हें अपनी निर्मल भक्ति, तपस्या और प्रेम के उपहारस्वरूप एक दिव्य स्वरूप के दर्शन हुए।
परम दयालु गुरु जी ने अपने सच्चे भक्त को इच्छित वर मांग लेने को कहा। परन्तु भाई गोइन्दा जी मौन रहे। कृपालु गुरु जी ने पुनः मनवांछित वर मांगने के लिए कहा।
परम दयालु गुरु जी ने अपने सच्चे भक्त को इच्छित वर मांग लेने को कहा। परन्तु भाई गोइन्दा जी मौन रहे। कृपालु गुरु जी ने पुनः मनवांछित वर मांगने के लिए कहा।
भाई गोइन्दा अति विनम्रता से उत्तर देते हैं-
हे दयानिधान! आपने कृपापूर्वक जिन दिव्य दर्शनों की एक झलक दिखाई है। उन दिव्य दर्शनो को सदा के लिए वैसे ही बना रहने दे। आपके अलौकिक स्वरूप को मैंने अपने मन मंदिर में उतार लिया है। आपके दिव्य चरण-कमलों की छवि को मैंने अपने नेत्रों में बसा लिया है। यह दिव्य स्वरूप किसी अन्य दर्शनों से मलिन न हो जाए इसलिए मुझे फिर से दृष्टिहीन कर दीजिऐ। यही नेत्र आपके दिव्य दर्शनों के लिए खुले थे। इन्हें संसार के लिए बंद ही रहने दीजिए।
मेरी ये सौभाग्यशाली आँखें और हृदय आप की अलौकिक सुन्दरता के प्रति आकृष्ट होने के बाद अब किसी भी सांसारिक वस्तु पर केन्द्रित नहीं हो सकते। मेरे साहिब, मैं विनती करता हूँ कि मुझे फिर से पूर्ण रूप से दृष्टिहीन कर दीजिऐ।
परमात्मा के दिव्य स्वरूप की झलक पा जाने का सौभाग्य प्राप्त होने के पश्चात भाई गोइन्दा जी अब पूरे अन्धेपन की याचना कर रहे है। मन-मन्दिर में अपने प्रियतम की छवि को स्थापित कर अब वह किसी और को देखना ही नहीं चाहते।
भाई गोइन्दा जी फिर से दृष्टिहीन हो गए तथा गुरु-कृपा से कृतज्ञ वह पुनः उस परम आनन्द में लीन होकर उनके दिव्य स्वरूप का रसपान करने लगे।
सतिगुरु उनके शरीर के रोम-रोम में बस चुके थे। गुरु की दृष्टि और कृपा ने उन्हें परमानन्द से सराबोर कर दिया था। श्री हरगोबिन्द साहिब ने भाई गोइन्दा पर अपनी दया दृष्टि डालते हुए उन से कोई और मनवांछित फल मांग लेने को कहा।
दिव्य दर्शनों के बाद किसी और की ओर देखने का अर्थ था- पवित्र दर्शनों की पवित्रता को कम कर के आंकना। उनका अगाध़ प्रेम केवल परमात्मा के लिए था, इसलिए वे सतिगुरु से बार-बार दृष्टिहीनता का ही वरदान मांगते रहे।
ऐसे दिव्य आशिकों की आंखे सिर्फ़ ईश्वरीय दर्शनों के लिए ही होती हैं। प्यारे सतिगुरु के पवित्र दर्शन ही उनके जीवन-उद्देश्य की सच्ची प्राप्ति है।
भाई गोइन्दा जी फिर से दृष्टिहीन हो गए तथा गुरु-कृपा से कृतज्ञ वह पुनः उस परम आनन्द में लीन होकर उनके दिव्य स्वरूप का रसपान करने लगे।
सतिगुरु उनके शरीर के रोम-रोम में बस चुके थे। गुरु की दृष्टि और कृपा ने उन्हें परमानन्द से सराबोर कर दिया था। श्री हरगोबिन्द साहिब ने भाई गोइन्दा पर अपनी दया दृष्टि डालते हुए उन से कोई और मनवांछित फल मांग लेने को कहा।
दिव्य दर्शनों के बाद किसी और की ओर देखने का अर्थ था- पवित्र दर्शनों की पवित्रता को कम कर के आंकना। उनका अगाध़ प्रेम केवल परमात्मा के लिए था, इसलिए वे सतिगुरु से बार-बार दृष्टिहीनता का ही वरदान मांगते रहे।
ऐसे दिव्य आशिकों की आंखे सिर्फ़ ईश्वरीय दर्शनों के लिए ही होती हैं। प्यारे सतिगुरु के पवित्र दर्शन ही उनके जीवन-उद्देश्य की सच्ची प्राप्ति है।
सभु दिनसु रैणि देखउ गुरु अपुना विचि अखी गुर पैर धराई ॥
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब, अंग 758
मैं अपने प्यारे गुरु के दर्शन दिन-रात करता रहूँ और गुरु के पवित्र चरणों को ही अपनी आँखों में संजोये रखूँ।रैणि दिनसु गुर चरण अराधी दइआ करहु मेरे साई ॥
नानक का जीउ पिंडु गुरू है गुर मिलि त्रिपति अघाई ॥
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब, अंग 758
(हे मेरे प्रभु!, मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि मैं रात-दिन सतिगुरु के पवित्र-चरणों की भक्ति कर सकूं। गुरु तो श्री गुरु
नानक का शरीर और आत्मा दोनो ही गुरु हैं और गुरु का मिलाप ही सम्पूर्ण परमानन्द की प्राप्ति है।)
नानक का शरीर और आत्मा दोनो ही गुरु हैं और गुरु का मिलाप ही सम्पूर्ण परमानन्द की प्राप्ति है।)
याद रखें कि-
- जब भी आप गुरु नानक साहिब के पवित्र स्वरूप के दर्शन करते हैं तो उस समय सच्चे-पातशाह भी आप ही को निहार रहे होते हैं।
- जब आप उनके दर्शन करते हैं तो सर्व-दयालु परमात्मा भी अपनी दया-दृष्टि आप पर डालते हैं।
- जब आप उनका मनन करते हैं, उनका ध्यान करते हैं तो वह परम दयालु, करूणा स्वरूप सतिगुरु आपको अपनी पवित्र शरण में ले लेता है।
इस संपूर्ण पवित्र प्रक्रिया में महान जगत गुरु आप को अंधकार से प्रकाश तथा मृत्यु से अमरता की ओर ले जाते हैं।
बाबा नरिन्दर सिंह जी
गुरु नानक पातशाह का पावन स्वरूप नेत्रों और मन को आनंद प्रदान करता है। उनका प्रकाशमय स्वरूप सब प्रकार से आनन्द और आह्लादों का प्रदाता है।
बाबा नरिन्दर सिंह जी
बाबा नंद सिंह जी महाराज ने फ़रमाया-
सिक्खी की यह कितनी बड़ी लीला है, कितना बड़ा कमाल है कि जिन नेत्रों ने सतिगुरु के दर्शन किए हैं, अब वे नेत्र किसी और को देखना ही नहीं चाहते। वह नेत्र अब इस दुनिया के वास्ते बंद हो जाना चाहते हैं।
गुरु नानक दाता बख़्श लै, बाबा नानक बख़्श लै।
(Smast Ilahi Jot Baba Nand Singh Ji Maharaj, Part 2)
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