भाई मति दास जी की शहादत

 


एक बार पूज्य पिता जी बड़े वैराग्य में बैठे थे, संगत भी बहुत बैठी थी, दास भी चरणों में हाज़िर था । वे इतने वैराग्य में आ गए कि सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। ऐसे लग रहा था जैसे पिता जी कोई दृश्य देख रहे हों। जिस तरह से हर कोई पिताजी को देख रहा है। उनका वैराग बढ़ता ही जा रहा था।

फिर स्वयं ही बताया - भाई मति दास जी की शहादत की तैयारी हो रही है। 

जो दृश्य उस वे समय देख रहे थे और साध संगत जो उन्होंने बताया। मैं उनकी ज़ुबान में आपसे साझा करता हूँ।

भाई मतिदास जी को चांदनी चौक में भरी भीड़ के सामने शहीद होने के लिए तैयार किया जा रहा है। एक शिकंजा, जिसमें उन्हें बाँधना है, खड़ा है।

उनसे पूछा गया - आपकी कोई आखिरी इच्छा है?

उस समय भाई मतिदास जी ने क्या कहा? एक सिक्ख की,  गुरुमुख की पहली और आखिरी इच्छा क्या होती है?  मुख गुरु की ओर हो। 

भाई मतिदास जी उत्तर देते हैं- प्रिय मित्रों, मेरा मुख मेरे गुरु की ओरकर दो। तुम्हें जो करने की सलाह दी गई है वह करो, लेकिन मुख गुरु की ओर  कर दो।

उनका मुख गुरु जी की ओर कर दिया गया और उन्हें शिकंजे में जकड दिया गया।  गुरु तेग बहादर साहिब भाई मतिदास जी को देख रहे हैं।

नानक नदरी नदरि निहाल ॥

श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 8

उस अमृत दृष्टि में सारी  बख्शिश भाई मतिदास की ओर बह रही थीं।
पिता जी कहने लगे- उसी समय भाई मतिदास जी की दृष्टि काजी पर पड़ी। हृदय से उस का धन्यवाद कर रहे हैं।
 
उससे कह रहे हैं- मैं आपका बहुत आभारी हूं, मुझ पर आपका बहुत ऋणी हूँ कि आज आपने मुझे मेरे सतिगुरु के चरणों में शहीद होने का अवसर दिया है। फिर उन्होंने  जल्लादों की ओर देखा और फिर वही धन्यवाद दोहराया। फिर आरे को चूमा। 

पिता जी इसका अर्थ समझा रहे हैं - यदि सिर गुरु की ओर हो तो इसका क्या मतलब है?

कहने लगे कि-
  • जब मुख गुरु की ओर हो तो संसार की ओर पीठ होगी।
  • यदि गुरुमुख का मुख गुरु की ओर हो तो संसार तो पीठ से भी बहुत पीछे रह गया।
  • यदि मुख करतार  की ओर है तो संसार बहुत पीछे रह गया। (गुरु का अर्थ है जो अन्धकार में प्रकाश करता है) जिस गुरुमुख का मुख उस प्रकाश (गुरु) की ओर होगा तो साध संगत जी अन्धकार तो बहुत पीछे रह जायेगा।
  • यदि मुख ही तूं की ओर है, आपके प्रियतम की ओर है, तो 'मैं' नहीं है। "मैं"  तो उसके चरणों  में कैद हो गयी है। "मैं" ख़त्म हो गई, उस प्रेम में बह चुकी है, तो "मैं" कहाँ है, जब मुख ही तूं की ओर है।
तब पिताजी कहने लगे कि-
हम क्या देख रहे हैं कि जब मुख ही उस अकाल मूरत निरंकार स्वरुप गुरु तेग बहादुर साहिब की ओर है तो काल भाई मतिदास जी के पीछे हाथ जोड़कर खड़ा है। 
फिर कौन सा काल. . . ?  जब गुरुमुख गुरु के चरणों में लीन हो गया हो।

धरम राइ दरि कागद फारे जन नानक लेखा समझा ॥

श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 698 

 वहां धर्मराज का कौन सा विधान बचा है, जब काल पीछे हाथ बांधे खड़ा है।

अनद रूप मंगल सद जा कै ॥ सरब थोक सुनीअहि घरि ता कै ॥

श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 284

सतिगुरु आनंद स्वरूप हैं। वह सत्त, चित्त, आनंद है। जब मुख  आनंद की ओर है और दुख कैसा ?

जब आनंद स्वरूप गुरु की ओर मुख है, जब सिक्ख आनंद में ही लीन है, तो उस समय दुःख कैसे हो सकता है?

पिता जी यह बता रहे हैं-  

जब सिक्ख गुरु पर ध्यान केंद्रित करके गुरु में लीन हो जाता है, तब सिक्ख गुरु पर कुर्बान हो रहा होता है। भाई मतिदास जी को गुरु तेग बहादुर साहिब ('गुरु') से इस तरह कुर्बान हो रहे हैं। 

भाई मतिदास जी के हृदय में एक तड़प उठी। सेवक थे, साहिब को स्नान कराते थे।साहिब के चरणों का अमृत पीने का अवसर मिला। साहिब के चरण कमलों को वैराग के आंसुओं से भी  स्नान कराया गया है। वही आँसू चरणों से चाट भी थे। आज दिल से एक तड़प उठी है। एक पुकार उठी है कि-

हे सच्चे पातशाह ! हे मेरे प्रीतम, बाबुल, तूं  तो मेरी आत्मा में बसा हुआ हैं, सच्चे पातशाह! जीवन भर गरीब निवाज़ तेरे चरणों में रहा हूँ, प्रेम  किया है। गरीब निवाज़, आपकी कृपा से ही इन रगों में खून बह रहा है। सच्चे पातशाह बख्शिश करो  कि यह शहीदी खून व्यर्थ न हो जाये। गरीब निवाज़ आपके चरण कमलों का स्नान इस शहीदी खून से हो जाये।

इतनी देर में  सीस पर आरा चला है। खून का फव्वारा फूट पड़ा और सीधा जाकर गुरु तेग बहादुर साहिब के चरण कमलों पर गिरा। शहीदी खून से चरण कमलों का स्नान हो रहा है। भाई मतिदास जी, जिनके माथे में आरा है, आँखें खुली हुई हैं, इस कृपा को अपनी पवित्र आँखों से  देख रहे हैं। 

जिस प्रकार पिता जी वर्णन कर रहे हैं। 

साहिब ने उस प्यारे सिक्ख, उस गुरुमुख के शहीदी खून को अपने दाहिने हाथ को नीचे कर के अपनी उंगली से लगाया है और फिर उसे अपने मस्तक पर लगाया है। भाई मतिदास जी देख रहे हैं। 

साध संगत जी, उस समय भाई मतिदास जी के हृदय की क्या स्थिति थी?

पिताजी कहने लगे- हम देख रहे हैं कि भाई मतिदास जो सदैव... 

तिसु गुर कउ सिमरउ सासि सासि ॥

गुरु मेरे प्राण सतिगुरु मेरी रासि ॥

श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 239  

...आज साहिब ने उन्हें अपनी त्रिकुटी पर बैठाया है।

सतिगुरु सिख का हलतु पलतु सवारै॥

नानक सतिगुरु सिख कउ जीअ नालि समारै॥

श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 286 

यदि कोई सिक्ख गुरु का श्वाश श्वाश सिमरन करता है। गुरु ही उसके प्राण है और फिर गुरु अपनी सिक्ख को अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय समझता है। अपनी प्राणों से भी अधिक करीब समझता है। ये है सिक्ख और गुरु का रिश्ता।

तिसु गुर कउ सिमरउ सासि सासि ॥

गुरु मेरे प्राण सतिगुरु मेरी रासि ॥

श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 239 

गुरु नानक दाता बख़्श लै, बाबा नानक बख़्श लै।

(Nanak Leela, Part 2)


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