गुरुमुख और सनमुख - सतिगुरु मेरा मारि जीवालै ॥
गुरुमुख और सनमुख
बाबा नंद सिंह साहिब ने 'नाम' को प्रकट करते हुए एक पवित्र प्रसंग सुनाया-
एक गाँव में 'गुरमुख' और 'सनमुख' नाम के दो सिक्ख रहते थे। गुरुद्वारा 'तरनतारन साहिब' में कार सेवा चल रही थी। दोनों ने सोचा कि क्यों न हम भी 15 दिनों के लिए इस कार सेवा में भाग लें। गुरु साहिब सच्चे पातशाह गुरु अर्जन देव जी के दर्शन करें। 15 दिन उनके चरणों की सेवा करके अपना जन्म सफल बनाऐं। दोनों ने अपनी पत्नियों को जब यह मंशा बताई तो वे भी बहुत प्रसन्न हुईं।
उनकी पत्नियों ने रास्ते के लिए खाना और शेष ज़रुरत का सामान बाँध कर उन्हें सौंप दिया। सामान लेकर दोनों अपनी यात्रा पर निकल पड़े। शाम को अंधेरा हो जाने पर वे एक गांव के पास पहुंचे, तो उनकी मुलाकात एक सज्जन व्यक्ति से हुई। उसने कहा कि आप रात को क्यों यात्रा करते हो, आज रात आप मेरे घर रुको और सुबह ब्रह्म महुर्त में फिर से यात्रा पर निकल जाना। आपस में सलाह करने के बाद दोनों वहीं रुक गये।
बाबा नंद सिंह साहिब ने फ़रमाया-
वह चोर था, उसकी नियत ख़राब थी। वह दोनों को अपने घर ले गया और जाकर अपनी पत्नी से कहता है कि आज अच्छा माल हाथ आया है। लगता है इनके पास अच्छा माल है, हम इनके खाने में जहर डालकर इन्हें लूट लेंगे। उसकी पत्नी इस के लिए नहीं मानी पर उसने जबरदस्ती उससे खाने में जहर मिला दिया।
वे दोनों सो गये और प्राण त्याग दिये। फिर उसने उन्हें एक-एक करके उठाया और रात के अँधेरे में रास्ते में फेंक दिया। सुबह ग्रामीणों ने देखा कि दो यात्रियों को बीच रास्ते में मृत पाया। सबने आपस में सलाह करके उनका दाह-संस्कार कर दिया।
15 दिन बीत गए। 20 दिन बीते, 25 दिन बीते, उन दोनों की पत्नियों को उनका इंतज़ार करते हुए। दोनों यह सोच रही थीं कि गुरु नानक के चरणों को छोड़ कर वापिस आने को किसका मन करेगा?
कौन उस कार सेवा को छोड़कर यात्रा करना चाहेगा?
क्यों न हम दोनों भी चलें? हम भी सच्चे पातशाह के दर्शन का लाभ लें, जाकर कारसेवा करेंऔर लौटते हुए उन्हें भी साथ लेते आएंगे।
यात्रा के दौरान उन्हें भी उस गांव में अंधेरा हो गया, रात हो गई। वे गाँव वालों से अपने पतियों के बारे में सब से पूछ रही हैं। गाँव वालों ने बताया कि आप हुलिया बता रही हो आप कपड़े बता रहे हैं, ऐसे दो यात्री लगभग 25 दिन पहले यहां रास्ते में मृत पाए गए थे। गाँववालों ने कहा कि हमने उसका अंतिम संस्कार कर दिया।
दोनों बहुत आश्चर्यचकित होकर कहती है कि क्या आप हमें अभी शमशान ले जा सकते हैं? उन्होंने कहा कि बीबा, तुम आज रात हमारे गाँव में ही रुक जाओ, क्योंकि अभी अँधेरा हो गया है। वहाँ केवल सड़ी हुई हड्डियाँ ही पड़ी हैं, और कुछ नहीं है। हम तुम्हें सुबह वहां ले चलेंगे।
तब उन दोनों ने कहा कि वह सड़ी हुई हड्डियाँ नहीं हैं। हमारे पतियों को पूर्ण सतिगुरु मिला है। उनके रोम-रोम से साहिब सतिगुरु के बख्शे हुए नाम की धुनि गूँजती थी।
गुरमुखि रोमि रोमि हरि धिआवै ॥
(श्री गुरु नानक देव जी) श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 941
उन दोनों के रोम-रोम से साहिब के बख्शे हुए के नाम की धुनि गूँजती थी।
जिन हड्डियों को आप सड़ा हुआ कहते हो, उन अस्थियों में जो छेद होंगे, उनमें से अभी भी वही धुनि निकलती होगी। हम अपने पतियों की अस्थियों को पहचान लेंगे। गाँव वालों बड़े आश्चर्यचकित हुए और बोले- अच्छा बीबा, हम सुबह चलेंगे। सुबह दोनों को शमशान ले गए।
अब बाबा नंद सिंह साहिब क्या अमृत बचन कहते हैं?
शमशान पहुँचते ही उन दोनों ने अपने पतियों के दाह-स्थल को बड़े आदर से प्रणाम किया। माथा टेककर फिर अंदर जा कर देख क्या रही हैं? एक-एक करके एक अस्थि उठाती हैं, उसे अपने कान से लगाती है। जिस में से 'वाहिगुरु' शब्द की धुनि सुनाई देती है, वह उसे अपने मस्तक से लगाती है, नमन करती है और एक पोटली में रख लेती है। जिस अस्थि में से सतिनाम शब्द की धुनि सुनाई देती है उसे दूसरी महिला उसी प्रकार आदरपूर्वक मस्तक से लगा कर नमन करती है और अपनी पोटली में रख लेती है।
जिस चोर ने उन दोनों को मारा था, वह भी उसी गांव का रहने वाला था। उसे जब यह पता चला तो उसने उन अस्थियों में टिटिहरी की हड्डियों को मिला दिया। क्योंकि उनमें भी छेद होते हैं। जब वे दोनों अपने-अपने पतियों की अस्थियों की पहचान कर रही थी, कान से लगा कर सतनाम, वाहेगुरु की धुनि को सुनने की कोशिश कर रही थी तो वे यह कह कर उसे एक तरफ रख देती हैं कि यह किसी और की है, यह मेरे पति की अस्थि नहीं है।
अस्थियों को इकट्ठा कर के उन्होंने पोटलियों को अपने सीस पर उठाया और गुरु घर की ओर चल पड़ी। जब वे दरबार में गुरु अर्जन पातशाह के चरणों में पहुंचीं तो दोनों ने अपनी-अपनी पोटली रख दी और माथा टेककर दोनों महिलाएं पीछे बैठ गईं।
अब वहाँ एक अजीब लीला हुई। हैरानी में हर कोई एक-दूसरे की ओर देखता है कि ये धुनिआं कहां से आ रही हैं? साहिब के चरणों में दो पोटलियाँ पड़ी हैं। उनमें से दो मधुर धुनें निकल रही हैं। एक में से वाहिगुरु की और दूसरी में से सतिनाम की। सतिनाम-वाहिगुरु, सतिनाम-वाहिगुरु, सतिनाम-वाहिगुरु की धुनि उठ रही है। सभी लोग यह सोच रहे थे कि इतनी मधुर धुनिआं कौन आलाप रहा है। जब देखा तो पाया कि यह धुनि तो पोटलियों में से आ रही है।
फिर वे गुरु साहिब से पूछते हैं कि सच्चे पातशाह यह लीला समझ में नहीं आया। दो महिलाएँ आई थीं, ये दो पोटलियाँ चरणों में रख गई हैं और उनमें से सतिनाम-वाहिगुरु, सतिनाम-वाहिगुरु की मधुर धुनि उठ रही हैं।
गुरु साहिब ने फ़रमाया कि उन दोनों महिलाओं को बुलाओ। दोनों महिलाओं को बुलाया गया। दोनों आकर हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं।
साहिब पूछते हैं - कहां से आई हो?
दोनों ने कहा - सच्चे पातशाह, गरीब निवाज़, आप अंतर्यामी हैं, आप सब जानते हैं।
फ़रमाया - नहीं बीबी! विस्तारपूर्वक सबके सामने अपनी व्यथा कहो।
उन्होनें अपनी व्यथा, सारी कहानी विस्तार से सुनाई कि गरीब निवाज़ हमारे साथ ऐसे-ऐसे हुआ। गरीब निवाज़, ये आपके सिक्ख हैं, ये आपकी अमानत है, हम आपकी अमानत आपके चरणों में सौंपने आईं हैं। साहिब देख रहे हैं। संगत सुन रही है। उस समय साहिब बड़ी प्रसन्नता में आये, साहिब का नदर जिसमें दरगाह की सारी रहमतें बहती हैं। उस समय क्या हुकुम करते हैं-
फ़रमाया- दो सफेद चादरें ले आओ और इन पोटलियों को अलग-अलग रख दो। दोनों पोटलियों को चादरों से ढक दिया गया।
कभी नाम को भी कोई आग जला सकती है।नाम को भी कोई पानी डुबा सकता है।नाम को भी कोई हवा उड़ा सकती है।
गुर का बचनु बसै जीअ नाले ॥
जलि नही डूबै तसकरु नही लेवै भाहि न साकै जाले ॥
सतिगुरु मेरा बेमुहताजु ॥सतिगुर मेरे सचा साजु ॥सतिगुरु मेरा सभस का दाता ॥सतिगुरु मेरा पुरखु बिधाता ॥गुर जैसा नाही को देव ॥जिसु मसतकि भागु सु लागा सेव ॥सतिगुरु मेरा सरब प्रतिपालै ॥सतिगुरु मेरा मारि जीवालै ॥सतिगुर मेरे की वडिआई ॥प्रगटु भई है सभनी थाई ॥सतिगुरु मेरा ताणु निताणु ॥सतिगुरु मेरा घरि दीबाणु ॥सतिगुर कै हउ सद बलि जाइआ ॥प्रगटु मारगु जिनि करि दिखलाइआ ॥जिनि गुरु सेविआ तिसु भउ न बिआपै ॥जिनि गुरु सेविआ तिसु दुखु न संतापै ॥नानक सोधे सिंम्रिति बेद ॥पारब्रहम गुर नाही भेद ॥
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 1142
साहु हमारा ठाकुरु भारा हम तिस के वणजारे ॥
जीउ पिंडु सभ रासि तिसै की मारि आपे जीवाले ॥
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 155
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