गुरु दक्षिणा
बाबा नंद सिंह साहिब ने वचन शुरु किए-
राज है जी राज। राजा बड़ा धरमी है। राज में व्रत का पालन हो रहा है, सारी प्रजा ने व्रत रखा हुआ है।
वजीर ने आकर शिकायत की कि- एक घर से धुआँ निकल रहा है।
राजा ने उसे बुला भेजा है। जब वह आकर खड़ा हो गया तो राजा पूछने लगा-
वह हाथ जोड़कर विनती करता है कि- हे राजन! मुझे पूरे गुरु की प्राप्ति हुई है।
यह सुनकर राजा चकित हुआ कि पूरे गुरु की प्राप्ति हुई है!
उसने कहा कि - राजन मेरे गुरु ने मुझसे हमेशा के लिए व्रत रखवा लिया है।
इसे सुनकर तो राजा और हैरान हुआ, उसके मुख से निकला व्रत और रोज का व्रत?
अपने उस प्रजा जन की बात सुनकर राजा प्रभावित हुआ और कहने लगा- गुरुमुख जी, हमें भी अपने ‘सतिगुरु’ के दर्शन करा दो।
गुरुमुख हाथ जोड़कर कहता है-
यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और बड़े आदर से उस व्यक्ति को विदा किया।
कुछ समय बीत गया, एक दिन वजीर ने आकर बताया -
राजा ने सारी बात सुनी, पर उनके दर्शनो के लिए जाने से पहले उसके मन में ख्याल आया कि इन साधुओं की परख की जाए। यह सोचकर उसने दरबार की मोहक नर्तकियों , नाचने वाली सुन्दरियों को बुलाकर समझाया कि तुम जाकर परख करो। वे बन-ठनकर बाग में पहुँचीं।
वहाँ विराजमान कौन है? - गुरु नानक पातशाह, भाई मरदाना, भाई बाला जी। जिस समय वे नर्तकियाँ वहाँ पहुँची तो उन संतों की वृत्ति अपनी ओर करने की कोशिश की। जिस समय गुरु नानक पातशाह की दृष्टि उन पर पड़ी तो उन नर्तकियों की ही वृत्ति बदल गई।
साध संगत जी! यह अमृत दृष्टि कैसी है-वह अमृत दृष्टि जो कोडे राक्षस पर पड़ी थी तो क्षण में ही देवता बना दिया था।
वही अमृत दृष्टि जब सज्जन ठग पर पड़ी तो उसे संत बना दिया।
यही दृष्टि जब दिपालपुर के कोढ़ी पर पड़ी है तो क्षण में उसे चिर नवीन बनाकर ‘नाम’ से उसे महका दिया है।
आज वही अमृत दृष्टि उन नृत्यांगनाओं पर पड़ी है तो जो परख करने आयी थीं वे तो सच की मूर्तियाँ बनकर खड़ी हो गईं। उनके चेहरों से पवित्रता झलकने लगी।
उन्होंने अपनी गुस्ताख़ी की क्षमा मांगी - सच्चे पातशाह! हमें बख़्श दो, हमसे बड़ी भारी गलती हो गई है।
वे नर्तकियाँ वापस चली गईं। जाते ही राजा से बोलीं - अब हम तुम्हारी नौकरी नहीं करेंगी, इस बुरी नौकरी को हम छोड़ रहीं हैं।
जब राजा ने उन पुनीत देवियों को देखा, उन सच की मूर्तियों को देखा तो राजा बहुत हैरान हो गया है।
वे कह रही हैं- हमने अब तक ये बुरा जीवन व्यतीत किया है, अब नहीं करेंगी।
राजा आश्चर्य चकित है कि एक ही दर्शन के साथ ये बुरी औरतें सच की मूर्तियाँ और पवित्रता की देवियाँ बन गई हैं।
राजा बहुत पछताया और बाग में जाने की तैयारी करने लगा। उसने वजीर-अहलकारों (सहायक) को साथ लिया और भेंटे अर्पित करने की तैयारी शुरु कर दी। राजा अपने सहायकों को साथ लेकर बाग में हाजिर हुआ, भेंटों से भरे थाल सामने हाजिर किए और विनती की- सच्चे पातशाह परवान करो।
गुरु नानक पातशाह की अमृत दृष्टि जब उस पर पड़ी तो राजा को अपनी सुध्-बुध् भूल गई।
सच्चे पातशाह फरमाने लगे - राजन! हमें इन चीजों की जरूरत नहीं है।
इस पर सोचकर राजा कहने लगा - महलों में चलिए और प्रसादा ग्रहण करें।
इसीवृत्त को आगे बढ़ाते हुए बाबा नंद सिंह साहिब बताते हैं कि गुरु नानक पातशाह राजा से पूछते हैं-
राजन! तुम्हारे महलों में चलें और प्रसादा भी ग्रहण करें तो दक्षिणा क्या दोगे?’
अब राजा सोच में पड़ गया, पर उसने फट जवाब दिया- सच्चे पातशाह! मेरा राजपाट हाजिर है।
सच्चे पातशाह - कोई अपनी चीज दो, कोई अपनी वस्तु दो।
राजा- यह राजपाट मेरा है सच्चे पातशाह, सारा राजपाट हाजिर है, सच्चे पातशाह यह मेरा है।
इस पर गुरु नानक पातशाह फरमाते है-
सच्चे पातशाह ने फरमाया -
राजा फिर सोच में पड़ गया, कहने लगा - सच्चे पातशाह! मेरा मन हाजिर है।
गुरु नानक पातशाह फरमाने लगे- हे राजन कोई अपनी चीज दे।
राजा - जी, मन दे रहा हूँ।
पातशाह ने फरमाया-
राजा फिर सोच में पड़ गया और कहने लगा-
इस पर गुरु नानक पातशाह फरमाने लगे- यह ‘मैं’ हमें अर्पित कर दो।
राजा उत्तम अधिकारी था। अपनी सुध् बुध् गवाँ बैठा, उसी समय साहिब के चरणों में गिर पड़ा, गिरा भी ऐसा कि अब उठ नहीं रहा। वजीर अहलकार और संगत सभी देख रहे हैं, राजा गुरु नानक के चरणों में पड़ा है।
गुरु नानक पातशाह ने अपने हाथ की थपकी दी और कहा- राजन! उठो, जाओ और राज करो।
उसने शीश उठाकर कहा है - सच्चे पातशाह! अब राज करने योग्य रह कौन गया है?
सच्चे पातशाह- नहीं राजन, पहले तुम कहते थे कि यह राजपाट मेरा है। यह महल मेरे हैं। यह लाहो लश्कर मेरा है। पहले सब कुछ को मेरा कहते थे, अब बताओ ‘मैं’ किसको अर्पित की है?
राजा- सच्चे पातशाह, आपको।
सच्चे पातशाह- तो फिर यह (राज) किसका हुआ?
राजा - जी आपका।
सच्चे पातशाह-
- यह राजपाट गुरु का है, यह महल-माड़ियाँ गुरु की हैं, यह सब कुछ गुरु का है।
- गुरु का समझकर अब तुम राज करो।
- यह हमारी अमानत तुम्हारे पास है इस अमानत में ख़यानत नहीं करनी।
फिर गुरु दक्षिणा क्या है?
हउमै जाई ता कंत समाई ॥
तउ कामणि पिआरे नव निधि पाई ॥
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 750
हउमै मेरा मरी मरु मरि जंमै वारो वार ॥
गुर कै सबदे जे मरै फिरि मरै न दूजी वार ॥
बिनु गुर पारु न पावै कोई हरि जपीऐ पारि उतारा हे ॥
गुरु नानक दाता बख़्श लै, बाबा नानक बख़्श लै।
(Nanak Leela, Part 1)
www.SriGuruGranthSahib.org

pad kar bahut achha laga, aise aur post dalte rahe
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