श्री गुरु अर्जुन देव जी की विनम्रता

एक बार बाबा नंद सिंह जी महाराज के पवित्र मुखारविन्द से ज्ञान-अमृत की धारा इस प्रकार निकली-




    श्री गुरु अर्जुन देव जी के गुरु-गद्दी पर विराजमान होने की खबर देश-देशान्तर में फैल गयी। दूर-दूर से श्रद्धालु संगत पाँचवे गुरु नानक पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव के दर्शनों के लिए अमृतसर में आनी शुरु हुईं। 

    गुरु जी के दर्शन के लिए काबुल की संगत भी अमृतसर की ओर आ रही थी। दर्शनों के लिए व्याकुल हुई संगत ने आख़िरी दिन सुबह-सवेरे यह अरदास-कामना की कि वे शाम के दीवान में गुरु साहब के दर्शनों के बाद ही लंगर का प्रसाद लेंगे। ऐसा विचार करके वे अपने आख़िरी पड़ाव से शीघ्रता से रवाना हुए। पर वृद्ध पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के साथ होने के कारण, संगत जब श्री हरमन्दिर साहब से कुछ मील की दूरी पर थी, तो रास्ते में ही रात हो गयी। दिन के सफर से वे स्वयं को थके-थके और भूखे महसूस कर रहे थे।

    इधर श्री गुरु अर्जुन साहब जी अपनी जीवन-संगिनी, माता गंगा जी को अपने हाथ से तरह-तरह के भोजन पदार्थ तैयार करने के लिए कह रहे थे। भोजन सामग्री तैयार हो गयी। श्री गुरु अर्जुन देव और माता गंगा जी ने भोजन-पानी सहित सारी सामग्री अपने सिर पर उठा ली और नंगे पैर ही उस स्थान की ओर चल पड़े, जिस स्थान पर काबुल की संगत ने पड़ाव किया हुआ था। 

    भूख-प्यास और यात्रा से थकी-हारी संगत को गुरु जी और माता जी ने भोजन खिलाकर तृप्त किया। थका-मांदा एक वृद्ध श्रद्धालु जैसे-तैसे अपने हाथों से अपनी टांगो को दबा-सहला रहा था। श्री गुरु अर्जुन साहब ने दोनों हाथ जोड़ते हुए बड़ी विनम्रतापूर्वक इस सेवा को करने की आज्ञा लेकर उस बुजुर्ग की टांगों को दबाना-सहलाना शुरु किया। गुरु जी और माता गंगा जी सारी रात संगत की सेवा में जुटे रहे और पंखे से हवा करने की सेवा भी करते रहे। 
    आज इसी स्थान पर गुरु जी की पवित्र याद में ‘गुरुद्वारा पिपली साहिब’ सुशोभित है।

    दिन निकलते ही सारी संगत श्री हरिमन्दिर साहिब की ओर चल पड़ी। श्री हरिमन्दिर पहुँचकर सारी संगत ने अपने जोड़े (चरणपादुकाएँ) उतार दिये। संगत के जत्थेदार ने चरणपादुकाओं और सामान की रखवाली के लिए संगत में से किसी एक से रुकने का निवेदन किया पर हर व्यक्ति पाँचवें गुरुजी के दर्शन करने के लिए उतावला था। इस स्थिति को देखकर गुरु अर्जुन साहिब ने हाथ जोड़कर सेवा के लिए अपने-आप को प्रस्तुत कर दिया।
    
     संगत गुरु जी के दर्शनों के लिए अन्दर चली गयीं। स्पष्ट है कि गुरु जी अपने सिंहासन पर विराजमान नहीं थे। यह देखकर जत्थेदार ने बाबा बुड्ढा जी से गुरु जी के बारे में पूछा तो बाबा बुड्ढा जी ने बताया कि काबुल से आ रही संगत की सेवा करने के लिए गुरु जी और माता गंगा जी कल ही चले गए थे और अभी तक वापिस नहीं आए है।

     जत्थेदार ने बाबा बुड्ढा जी को बताया कि पिछली रात एक बहुत ही विनम्र और सीधे स्वभाव के स्त्री-पुरुष, भोजन-पानी लेकर आए थे और सारी रात वे संगत की सेवा करते रहे थे। अब उसी पुरुष को संगत की चरणपादुकाओं और सामान की रखवाली करने के लिए बाहर बिठाकर आए हैं। इतना सुनते ही बाबा बुड्ढा जी सहित सारी संगत बाहर की ओर चल पड़ी।

    नम्रता के पुंज गुरु अर्जुन देव जी रुहानी मस्ती और आनंद में डूबे संगत के जोड़े साफ़ कर रहे थे। दिल को हिला देने वाली इलाही नम्रता की हद देखकर बाबा बुड्ढा जी सहित सारी संगत भाव-विह्वल हो उठी।  सब के नेत्रों से अश्रु बहने लगे, ह्रदय चित्कार कर उठा।  

अपनी आँखों से निरन्तर आँसू बहाते हुए बाबा बुड्ढा जी ने विनती की- 
सच्चे पातशाह, आप हमारे परमेश्वर हैं!  गरीबों पर अपनी कृपा करो जी।

विनम्र भाव से सेवा कर रहे मस्ती और आनंद में डूबे श्री गुरु अर्जुन साहिब जी बाबा बुड्ढा जी की ओर देखकर फ़रमाने लगे-
सत्कारयोग्य बाबा बुड्ढा जी, अपने प्यारे गुरु नानक के लाडले बच्चों की चरणपादुकाओं की भाग्यप्रद सेवा मुझे कर लेने दीजिए।

 

संगत को पाँचवें गुरुजी के दर्शनों की दात प्राप्त हो गयी। रुहानी मौज में डूबकर संगत के जोड़े साफ करते हुए गुरु जी के इस रूप के संसारी संगत ने दर्शन किए। गुरु जी के प्रत्यक्ष दर्शन करती संगत के नेत्रों से आसुँओं की धारा नदी-सी बह रही थी। 

    ऐसे दर्शनों से संगत के हृदय से ‘मैं और मेरी’ भावना के सभी विचार ख़त्म हो गए थे। उनको रुहानियत के सबसे बड़े पाठ अर्थात् ‘भक्ति में नम्रता और नम्रता में भक्ति’ की अनमोल दात प्राप्त हो गई थी। प्रेम, श्रद्धा और आश्चर्य में डूबी पवित्र संगत दिव्य नम्रता और प्रेम के सच्चे पैग़म्बर सतिगुरु अर्जुन साहिब के चरणों में नतमस्तक होकर लेट गयी।

    दया के सागर गुरु जी ने दिव्य नम्रता और संपूर्ण आध्यात्मिक समृद्धियों से भरे व सबके साझे ‘प्रेम धर्म’ के पवित्र ग्रंथ का जब सृजन किया और फिर जब मानव जाति के अथाह प्रेम में गुरु जी ने सर्वोच्च कुर्बानी दी, गर्म तवी पर बैठे, अपने शीश पर डाली गई तपती रेत को सहर्ष स्वीकार किया; तो मानव जाति को श्री गुरु अर्जुन साहिब के प्रत्यक्ष हरि (परमात्मा) होने का निश्चय हो गया। 

सदा अंग-संग होकर अपने उद्धारकर्त्ता श्री गुरु अर्जुन साहिब के ऋण को यह मानव जाति युग-युगान्तर तक नहीं चुका सकेगी।

 

प्रेम का फल प्रेम है। प्रेम के साथ प्रेम मिलता है। 

गुरु जी की प्यारी संगत पाँचवे गुरु जी दर्शनों की जितनी गहरी चाह रखती है उतनी ही गहरी चाह से सतिगुरु जी भी अपनी ओर से आगे बढ़कर संगत को ‘जी आइयाँ’ (स्वागत है) कहकर मिलते हैं।

 

 
जिस प्रकार श्रद्धालु संगत गुरु जी की सेवा करने के लिए लालायित है; उसी प्रकार गुरु जी भी उनसे पहले उनकी सेवा में हाजिर हो जाते हैं। 

 

दिव्य प्रेम जवाबी खत की तरह होता है। यदि श्रद्धालु सिक्खों के दिलों में सतिगुरु जी के लिए सच्चा प्रेम है तो सतिगुरु जी के पवित्र हृदय में भी अपने सिक्खों के प्रति अथाह प्रेम है।

 

    यह पवित्र साखी (कथा), सिक्ख और उसके सतिगुरु के बीच परस्पर प्रेम की शिखर अवस्था की साखी है। इससे हमें यह सीख मिलती है कि नम्रता और भक्ति के प्रत्यक्ष स्वरूप श्री गुरु अर्जुन साहिब जी किस प्रकार अपने प्यारे सिक्खों को सिक्खी और नम्रता के रूप में ढालते हैं। सतिगुरु जी अपने सिक्खों को अपनी आत्मा से भी निकट समझते हैं और फिर अपनी दिव्य कृपा के द्वारा उनको श्री गुरु नानक साहिब जी के घर की सच्ची नम्रता में ढाल देते हैं। अपार कृपा करके गुरु जी ने अपने प्यारे सिक्खों के भीतर से अहंकार का नाश कर दिया।उनको सतिगुरु जी की हजूरी में परम सत्य की सौग़ात प्राप्त हुई।

गुरु जी के सिक्ख उस सुन्दर व सुलक्षण घड़ी का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, जब वे सतिगुरु अर्जुन देव जी के पवित्र चरण-कमलों का स्पर्श प्राप्त करेंगे और उनकी पुनीत पादुकाओं (जोड़े) को साफ करेंगे। 
पर धन्य है श्री गुरु अर्जुन पातशाह, 
धन्य है उनकी नम्रता और प्यार, 
उन्होंने अपने आप सेवकों की उसी सेवा की पहल करके अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सिक्खी के सच्चे व स्वच्छ रास्ते को प्रशस्त किया है।

    श्री गुरु अर्जुन साहिब नम्रता के इस एक ही अनुपम उदाहरण के द्वारा पवित्र सेवा की युक्ति समझाते हैं।
संगतों के दिल पवित्र हो गए। आनंद और सच्ची कृतज्ञता से आध्यात्मिक रंगत में डूबी संगत ने सतिगुरु जी के अगाध प्रेम व नम्रता के माध्यम से श्री गुरु नानक साहिब जी की ईश्वरीय लीला में स्नान कर लिया। यह सच्ची नम्रता गरीबी और अहं-शून्यता का पवित्र स्थान था। गुरु जी ने सारी संगत को गुरु नानक साहिब के महान् आदर्शों की अनुपम मर्यादा भक्तिभाव वाली नम्रता के रंग में रंग दिया।

भक्तिभाव वाली नम्रता एक दिव्य गुण है। यह पवित्रता से भी अधिक पवित्र है।

गुरु घर के प्रेम में रंगी और भाव में भीगी संगत परमात्मा की अपार लीला व नम्रता के पुंज पाँचवें श्री गुरु नानक साहिब के दर्शन कर रही थी।

सतिगुरु जी अपने प्यारे सिक्खों को भुलाते नहीं। 
सतिगुरु जी अपने सिक्खों को गहरा प्रेम करते हैं और अनेक रहस्यवादी अद्वितीय व अद्भुत विधियों से उनको ऊँचे रूहानी स्तर तक ले जाते हैं।

गुरु नानक दाता बख्श लै। 

बाबा नानक बख्श लै

Eternal Glory of Guru Arjan Dev Ji

www.SriGuruGranthSahib.org

Comments