भाई कैंठा जी
भाई कैंठा जी
काबुल की संगत गुरु हरि राय साहिब के पास कीरतपुर साहिब पहुँचती है। उनकी उत्साहपूर्ण इच्छा यह है कि वे गुरु साहिब को अपने साथ ले चलें ताकि काबुल की बाकी संगत भी उनके दर्शन कर के अपने जीवन को सफल कर सके।
उन्होंने जाकर यह विनती गुरु जी के समक्ष रखी। गुरु साहिब ने बहुत ही प्रेम से यह विनती सुनी। कुछ दिनों बाद उन्होंने उस संगत को वापिस काबुल जाने की अनुमति दी और उनकी विनती स्वीकार करते हुए अपना एक अतिप्रिय सिक्ख साथ भेजा और कहा कि यह आपको मेरी कमी महसूस नहीं होने देगा। इसकी सेवा हमारी सेवा होगी। यह कहकर के उन्होंने भाई कैंठा जी को संगत के साथ भेज दिया।
जब भाई कैंठा जी संगत सहित काबुल पहुँचे तो क्या घटना घटती है?
कीरतपुर साहिब में सुबह का दीवान लगा है, दीवान की समाप्ति हो चुकी है और संगत बाहर जाकर लंगर के लिए पंगत के रूप में सज गई है। प्रतिदिन गुरु साहिब स्वयं उठते और संगत में जाकर परशादा बँटवाते, पर आज गुरु साहिब नहीं उठे। पंगत के रूप में बैठी संगत को काफी देर हो गई और इधर परशादा भी ठंडा हो गया।
सेवादार ने जाकर विनती की-
सच्चे पातशाह बहुत देर से आपकी प्रतीक्षा हो रही है। गरीब-निवाज, नियमानुसार आप स्वयं पंगत में आकर परशादा बटवाने की आज्ञा देते हैं।
साहिब ने सेवक (हजूरिए) की ओर देखा और फ़रमाया कि-
काबुल में बैठा भाई कैंठा हमारे चरणों को जकड़े बैठा है। वह जब हमारे चरणों को छोड़ेगा, तभी हम उठ सकते हैं। जैसे ही यह होगा, हम बाहर आ जाएँगे।
उधर काबुल में क्या हो रहा है !
सवेरे के दीवान का भोग पड़ गया है। भाई कैंठा जी गुरु के ध्यान में पूरी तरह लीन हैं। पूर्ण रूप से गुरु प्रेम में वशीभूत हैं।
यह गुरु प्रेम का कैसा वशीकरण है? आखिर किस सुरूर, किस दीवानगी, किस नशे और गुरु के किन चरणों की प्रीति में भाई कैंठा जी डूबे हुए हैं !
वहाँ की संगत देख रही है कि भाई कैंठा जी गुरु के ध्यान में झूम रहे हैं। उस प्रेम में उन्हें अपना कोई होश ही नहीं है। प्रेम की उस खुमारी में वे अपने ही चरण पकड़े हुए हैं और जोर-जोर से अपने ही चरणों को दबा रहे हैं।
इस तरफ गुरु साहिब कह रहे हैं कि हमारे चरणों को भाई कैंठा ने जकड़ लिया है। सही अर्थों में जकड़ा तो उन्होेंने गुरु साहिब के चरणों को था, पर संगत मस्ती में देख रही है कि उन्हें तो अपना होश ही नहीं है।
साधसंगत जी, गुरु चरणों का आशिक, गुरु चरणों का प्रेमी कई हजार मील की दूरी से भी गुरु को अपने प्रेम में जकड़े बैठा है।
यहाँ बाबा नंद सिंह साहिब का एक वचन ध्यान में आ रहा है।
इंजन है, इंजन में कोयला डाला जाता है। पानी डाला जाता है तो भाप बनती है, वह भाप सलाखों के बीच से निकलकर सूक्ष्म होती जाती है। भाप जितनी सूक्ष्म होती जाती है, उतना अधिक बल पकड़ती जाती है।
फिर वह किस सीमा तक बल पकड़ती है!!!!!!!!
यह कोयले और पानी से बनी भाप इतना अधिक बल पकड़ती है कि इंजन को खींचती है, पूरी गाड़ी को खींचती है।
बाबाजी फिर फ़रमाने लगे-
यही हाल एक गुरसिख, एक गुरमुख की वृत्ति का है। जिस समय वह वृत्ति गुरु चरणों में लीन हो जाती है तो वह सूक्ष्म होती जाती है। गुरु परायण होकर चरणों में लीन रहती है। चरण-कमलों में सूक्ष्म होती जाती है। जैसे-जैसे वह सूक्ष्म होती जाती हैं, बल पकड़ती जाती है।
यही हाल एक गुरसिख, एक गुरमुख की वृत्ति का है। जिस समय वह वृत्ति गुरु चरणों में लीन हो जाती है तो वह सूक्ष्म होती जाती है। गुरु परायण होकर चरणों में लीन रहती है। चरण-कमलों में सूक्ष्म होती जाती है। जैसे-जैसे वह सूक्ष्म होती जाती हैं, बल पकड़ती जाती है।
जरा सोच के देखिए, भाई कैंठा जी की वृत्ति, जो गुरु नानक सच्चे पातशाह, सातवें गुरु नानक जी के चरण कमलों में लीन हो गई है, कितना बल पकड़ चुकी है। वह गुरु नानक पातशाह को जकड़कर बैठी है। देखिए तो उस वृत्ति ने कितना बल पकड़ लिया है।
गुरु नानक दाता बख्श लै।
बाबा नानक बख्श लै।
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