भेष की लाज

बाबा नंद सिंह साहिब ने एक पावन वचन सुनाया-

एक बहुरूपिए ने राजा के समक्ष स्वांग रचाया और अपनी कला दिखाकर वह अपनी बख़्शीश माँगता है। 

ऐसा सुनकर राजा ने कहा - तुम हमारे दरबार के बहुरूपिया हो और हम तुम्हें इसी रूप में जानते हैं। यदि कोई ऐसा स्वांग बनाओ कि हम तुम्हें पहचान न सकें फिर तो तुम बख़्शीश  के पात्र हो।

'सत्य वचन’ कहकर बहरूपिया वहाँ से चला  गया।

कुछ समय बीत गया, मंत्री ने राजा के पास आकर विनती की कि एक संत पधारे हैं जो बाहर के बाग में ठहरे हैं। उनकी बहुत प्रशंसा सुनी है। एक बड़े आश्चर्य की बात है कि वे कभी किसी से कोई भी वस्तु स्वीकार नहीं करते। कई लोग उनके चरणों में वस्तुएँ रख आते हैं और कई अन्य उठाकर ले जाते हैं। 

राजा बहुत प्रसन्न हुआ कि ऐसे सन्त ने हमारे राज्य में चरण डाले हैं, हमारे धन्य भाग्य है। क्यों न  हम भी वहाँ चलकर उनके दर्शनों का लाभ उठाएँ। 

राजा की ओर से यथायोग्य भेंट सामग्री तैयार करवाई गई। हीरे, जवाहरात और कीमती वस्त्र थाल में सजा कर राजा अपने अहलकार एवं मंत्रियों के साथ वहाँ पहुँचा। राजा ने वहाँ पहुँचकर सन्तों के चरणों में सामग्री के थाल रखवा दिए और विनती की कि हे गरीबनिवाज! हमारी ओर से यह प्रेम, भेंट स्वीकार कीजिए। 

सन्त जी ने राजा की ओर देखा, पर कोई वस्तु स्वीकार नहीं की। वहाँ कुछ देर बैठने के बाद राजा और अहलकार सब उठकर वापस आ गए और कीमती सामान से भरे थाल भी वापस ले आए, क्योंकि वे स्वीकार नहीं किए गए थे।

वे थोड़ी ही दूर आ पाए थे कि वह बहुरूपिया सन्त का भेष उतारकर, हाथ जोड़कर राजा के समक्ष आकर खड़ा हो गया। 

आश्चर्यचकित राजा ने कहा कि तुम तो वही बहुरूपिया हो। तुमने ही सन्त का स्वांग धारण किया हुआ था? 

जी हाँ! गरीबनिवाज!  

राजा ने कहा कि मैंने तुम्हारे सामने हीरे-जवाहरात रखे और साथ में और कीमती वस्तुएं भी रखीं,  उस समय तुम उन सब को ले सकते थे, और अब तुम थोड़ी सी बख़्शीश ही माँग रहे हो? मुझे अब यह बताओ कि उस समय तुमने यह सब क्यों नहीं लीं? 

इस पर बहरूपिया कहने लगा- ‘हे राजन! मैंने एक बहुत ही पावन और पवित्र भेष धारण किया था। मैंने एक सन्त का स्वांग रचाया था। यदि उस भेष में कोई भी वस्तु  ले लेता तो सन्त के नाम पर धब्बा लग जाता। मैं  उस पवित्र भेष को कलंकित नहीं कर सकता था। अब अगर आप थोड़ी-सी बख़्शीश भी देंगे तो मैं स्वयं को धन्य समझूँगा।’ 

फिर बाबा नंद सिंह साहिब ने दो बार दोहराया-

सन्त क्या और हीरे-जवाहारात क्या? सन्त क्या और हीरे-जवाहारात क्या?

 हम जैसे लोग सन्त बन गए हैं। सन्त के भेष की भी लाज नहीं है। 

हमारे कर्म क्या हैं! 

फरमाने लगे- 

यह ‘सिक्खी’ का पावन भेष हमें जो गुरु गोबिंद सिंह साहिब ने बख़्शा हुआ है... 

 

हम अपने आप को  गुरु नानक पातशाह और गुरु गोबिंद साहिब के सिक्ख कहते हैं, पर हमारे कर्म क्या हैं? हमारी करतूतें केसी हैं?’

फिर बाबा नंद सिंह साहिब फरमाने लगे-

हमसे अच्छा तो वह बहुरूपिया है जिसे भेष की लाज है, शर्म है। 

हम इस सिक्खी के भेष की तो लाज रखें, हममें इस भेष की शर्म तो हो। 

हम इस पर दाग तो न लगने दें।’

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गुरु नानक दाता बख़्श लै।।

बाबा नानक बख़्श लै।।


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