तव चरनन मन रहै हमारा


साधसंगत जी, बाबा नंद सिंह साहिब ने दूसरी साखी सुनाई- 

पहाड़ी वजीर है, जिसे उसके राजा ने गुप्तचर बनाकर गुरु गोबिंद सिंह साहिब के दरबार में भेजा कि जा, जाकर उनकी सारी फौज का, शस्त्रों का और हर एक वस्तु का पता करके आ। वह संगत में घुल-मिल कर गुरु दरबार में पहुँच गया है। 

गुरु की अमृत दृष्टि का कमाल है-

अम्रित द्रिसट पेखै होइ संत। 

जिसकी ओर भी सतगुरु अमृत दृष्टि डालता है, उसे संत बना डालता है। 

वह वजीर गया तो भेद लेने था, पर जब जाकर माथा टेका और साहिब की ओर देखा तो अन्तर्यामी पातशाह ने जो दृष्टि उस पर डाली, उस दृष्टि के पड़ते ही वह श्री गुरु गोबिंद साहिब का अनन्य भक्त बन गया। 

बाबा नंद सिंह साहिब फ़रमाने लगे कि अब वह गुरु साहिब का अनन्य भक्त बन गया है। साध् संगत जी, अनन्य का अर्थ क्या है? जिस समय प्रेम का लक्ष्य सिर्फ एक है, सिर्फ एक ही पहचान है, एक को ही देखना, एक को ही जानना है, उस एक के अतिरिक्त इस संसार में दूसरा कोई नहीं है। 
ऐसे ही अनन्य भक्त बना जाता है जिस तरह साहिब श्री गुरु ग्रंथ साहिब में फ़रमाते हैं।

अंतरि गुरु आराधणा जिहवा जपि गुर नाउ।। 
नेत्राी सतिगुरु पेखणा ड्डवणी सुनणा गुर नाउ।। 
सतिगुरु सेती रतिआ दरगाह पाईऐ ठाउ।।
कहु नानक किरपा करे जिस नो एह वथु देइ।। 
जग महि उत्तम काढ़ीअहि विरले केई केई।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-517

फिर उसने अन्तर्मुख होकर गुरु गोबिंद साहिब के चरणों को अपने हृदय में बसा लिया है। उसने अपने नेत्रों में भी गुरु गोबिंद साहिब को बसा लिया है। वह अन्तर्मुखी होकर भी गुरु गोबिंद साहिब को प्यार कर रहा है तो बहिर्मुखी होकर भी श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब को ही प्यार कर रहा है। 
उसके नेत्र  श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब के दर्शन करते हुए कभी तृप्त नहीं होते 
उसके कान श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब के अनमोल वचन सुनते हुए थकते नहीं। 
धन्न-धन्न गुरु गोबिंद सिंह साहिब कहते हुए उसकी जिह्वा (रसना) कभी थकती नहीं।

काफी समय बीत गया लेकिन वह गुप्तचर बनकर आया वज़ीर अपनी सुध-बुध खो बैठा है। उसे कोई होश ही नहीं है। उधर पहाड़ी राजे ने दरबार में कहा कि काफी देर हो गई है, अभी तक गुप्तचर को वापिस आ जाना चाहिए था। राजा ने एक और गुप्तचर भेजा और कहा कि उसे चेतावनी दो कि अब तक उसने वहाँ के सारे भेद पा लिए होंगे, वापिस आ जाए। 


नया गुप्तचर संगत में आकर वह पहले वाले गुप्तचर से मिला और कहा कि आपको राजा ने वापिस बुलाया है। वजीर गुरुजी से अनुमति लेकर वापिस राजा के दरबार में लौट गयाराजा ने उसके पद के अनुरूप उसे दरबार में स्थान दिया, उसका सत्कार किया और पूछा कि आपने इतनी देर लगा दी। अब जो सारी जानकारी ले आए हो, हमें बताओ। 

गुरु गोबिंद साहिब के चरणों का आशिक और उन चरणों में कैद पहाड़ी वजीर देवीचंद जो कहा उसमें गुरु का प्रेम झलक रहा था। क्योंकि गुरु का आशिक तो सिवाय प्रेम, अपने गुरु की स्तुति और उनकी बड़ाई छोड़कर और कौन से वचन कह सकता है? जिस समय उसने प्रेम के रंग में रंग कर गुरु के प्रेम को प्रकट किया है तो राजा अहंकार में आ गया, वह क्रोध में आ गया और उसने हुक्म दिया कि इसे यातनाएँ दी जाएँ। यह जाकर शत्रु से मिल गया है। इसको दूर पहाड़ी पर ले जाओ, दो सलाखें गरम करके इसके नेत्रों में चुभो दो। इसे अंधा करके बाहर फैंक आओ, ताकि इसे पता लगे कि शत्रु से मिल जाने की सजा क्या होती है?

बाबा नंद सिंह साहिब फ़रमाने लगे कि आदेशानुसार उसकी आँखों में सलाखें घोंप दी गईं और उसे अंधा करके फैंक दिया गया। थोड़ी देर के बाद वजीर उठता है और अपने नेत्र खोलता है तो महसूस करता है कि उसके नेत्र जस-के-तस बिल्कुल ठीक हैं।  जि साहिब के चरणों को उसने अपने नेत्रों में बसाया हुआ था, उनकी प्रीति में वह आनन्दपुर साहिब की ओर चल पड़ता है।

वहाँ जाकर उसने देखा कि गुरु गोबिंद सिंह साहिब का दरबार सजा हुआ है। गुरु गोबिंद सिंह साहिब अपने आसन पर विराजमान् हैं। उसने जाकर गुरु चरणों में मस्तक रखा, पर बड़ा हैरान होकर साहिब के मुख की तरफ देखकर कहने लगा- कि सच्चे पातशाह, ये चरण तो हर समय मेरे नेत्रों में समाए हुए हैं। हर समय मेरे हृदय में बसे हुए हैं फिर जो चरण मेरे नेत्रों और हृदय में बसे हैं उनका तस्वीर तो साफ है। उन चरणों पर तो ये पट्टियाँ नहीं बँधी हुई  थीं। 

वह दशमेश पिताजी से पूछ रहा है कि आज इन दोनों चरणों पर जो पट्टियाँ बँधी हैं, वह उन चरणों पर तो नहीं बँधी नहीं थीं, जो मेरे हृदय में बसे हैं। उस सिख का प्यार, उस प्रेम के द्वारा वह जो देख रहा है, उस ध्यान के द्वारा कि जो गुरु चरण उसकी आँखों में बसे हैं, उनका तस्वीर तो बिल्कुल साफ है। 

गुरु गोबिंद सिंह साहिब उसकी ओर देखकर मुस्कराये और कहने लगे-
यह सब तेरी ही मेहरबानी है। जब हैरान होकर उस सिक्ख ने गुरु की ओर देखा तो उन्होंने फ़रमाया कि-
अभी तूने क्या कहा है कि मेरे चरण बसा कहाँ रखे थे? 
कहा - सच्चे पातशाह! नेत्रों में। 
फिर उसे एकदम समझ आया कि वो तपती सलाखें, वे तपते तूम्बे (सलाखें) आखिर कहाँ जा खुभे थे। 

उस समय इस ओर क्या घटित हुआ?
जिस समय उसके दाहिने और बाएँ नेत्रों में वे तपती सलाखें घोपी जा रही थीं उस समय मेरे साहिब दशमेश पिताजी के दाएँ और बाएँ दोनों चरणों से खून के फव्वारे फूटे हैं। 

संगत देख रही है कि अचानक क्या हो रहा है? हड़बड़ी में भागकर संगत ने सच्चे पातशाह के चरणों पर पट्टियाँ बाँधी हैं। संगत पूछती है कि सच्चे पातशाह ! यह क्या कौतुक है? साहिब ने कोई जवाब नहीं दिया। अब संगत समझ गई है कि इस गुरमुख को यह सजा मिली है। जिस समय यह घटना घटी है उसी समय दशमेश पिता के चरणों में अचानक रक्त-प्रवाह की घटना घटी है।

साहिब श्री गुरु ग्रंथ साहिब क्या फ़रमाते हैं-

रैणि दिनसु गुर चरण अराधी दइआ करहु मेरे साई।। 30 ।। 
नानक का जीउ पिंडु गुरु है
गुर मिलि त्रिपति अघाई।। 31 ।।

                                                                     श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-758

सभु दिनसु रैणि देखउ गुर अपुना विचि अखी गुर पैर धराई।।
                                                                   श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-758
चरन कमल सिउ लागी प्रीति।। गुर पूरे की निरमल रीति।।
भउ भागा निरभउ मनि बसै।। अम्रित नामु रसना नित जपै।। 3 ।।
                                                                  श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-893
चरन कमल सिउ रंगु लगा अचरज गुरदेव।। 
जा कउ किरपा करहु प्रभ ता कउ लावहु सेव।।
                                                                  श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-814
गुर के चरन हिरदै बसाए।। मन चिंतत सगले फल पाए।। 
अगनि बुझी सभ होई सांति।। करि किरपा गुरि कीनी दाति।।
                                                                  श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-395 
राजु न चाहउ मुकति न चाहउ
मनि प्रीति चरन कमलारे।। 
ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा मोहि ठाकुर ही दरसारे।।
                                                                श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-534



माई चरन गुर मीठे।। वडै भागि देवै परमेसरु
कोटि फला दरसन गुर डीठे।।
                                                              श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-717

एक गुरमुख की अवस्था सी होती है? गुरमुख की क्या अरदास है? क्या विनती है? क्या निवेदन है? सा उत्साह है? 
दिन-रात श्वास-श्वास में, सच्चे पातशाह तेरे दर्शन होते रहें, तेरे चरणकमल मेरे नेत्रों में बसे रहें। मेरे नेत्रा तुम्हारे चरणों का निवास-स्थान बन जाएँ, घर बन जाएँ। 
पिताजी एक दिन कहने लगे-
चरण मिलते नहीं, जिसको मिलते हैं वह उसके प्रारब्ध् में मूलतः ही (धुरों) होते हैं।

माई चरन गुर मीठे।। वडै भागि देवै परमेसरु
कोटि फला दरसन गुर डीठे।। रहाउ।। 
गुन गावत अचुत अबिनासी
काम क्रोध बिनसे मद ढीठे।। 
असथिर भए साच रंगि राते जनम मरन बाहुरि नहीं पीठे।।1।। 
बिनु हरि भजन रंग रस जेते संत दइआल जाने सभि झूठे।। 
नाम रतनु पाइओ जन नानक नाम बिहून चले सभि मूठे।।
                                                                                           श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-717

गुरु नानक दाता बख़्श लै।। 
बाबा नानक बख़्श लै।।

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