साहिबु मेरा नीत नवा सदा सदा दातारु



वह निरंकार हर युग में अवतरित होता हैनई प्रेम लीला रचता हैनए रंग दिखाता है

साहिबु मेरा नीत नवा सदा सदा दातारु

वह बेअन्त है, उसके कौतुकों, रंगों और खेलों का अन्त नहीं हैं

 

त्रेता युग में भगवान् राम अवतरित हुए

 

उन्हें वनवास में जाना पड़ा, वे चित्रकूट में विराजमान हैंवे माता सीता से एक दिन कहते हैं कि हम जिस लीला के लिए इस मृत्युलोक में आए हैं, उस खेल का आरंभ करेंसाधसंगत जी, खेल आरंभ हो गया हैहृदय को हिलाने वाला खेल, इस मृत्युलोक को जगानेवाला खेलउस खेल में भरत जी, वियोग में जिस विरह, वैराग प्रेम को प्रकट करते हैं, उसका स्वरूप कैसा है? कैसा विरह? कैसा वैराग? कैसा प्रेम? ऐसा जो सारे संसार में प्रकाश भर दे

ऐसा विरह, ऐसा वैराग? ऐसा प्रेम।  

जिस प्रकार लक्ष्मण जी अपने भगवान् वीर (बड़े भाई) के वास्ते, अपना सुख, आराम सब कुछ त्याग देते हैं


वह प्रेमभरी रामायण, प्रेम की महान् प्रेरणा बन गईइस संसार के लिए एक जीवन प्रदान करने वाली प्रेरणा हो गई है और आज भी संसार को प्रेरित कर रही है


द्वापर का आगमन हुआ, भगवान् कृष्ण पधारे

 

भगवान् कृष्ण अर्जुन को बहुत प्रेम करते हैंअर्जुन भी अपने में अपने वीर (भाई), अपने सखा को असीम प्रेम करते हैंपर लीला (खेल) का प्रारंभ कैसे हुआ? जिस खेल के लिए नर और नारायण स्वयं आए थे वह कैसे आरंभ हुआ? उस खेल का आरंभ हुआ महाभारत के युद्ध के मैदान मेंआप सभी इतिहास से परिचित हैंकिस तरह रथ को नारायण स्वयं चला रहे हैं दोनों सेनाओं के मध्य रथ को ले आए हैं और उसे खड़ा कर दिया हैचारों दिशाओं में देखता अर्जुन अपने वीर, सखा और भगवान् से जिज्ञासामूलक प्रश्न शुरू कर देता हैजिस लीला के लिए भगवान कृष्ण अर्जुन धरती पर आये थे, अर्जुन ने उस खेल का प्रारंभ कैसी युक्ति से किया है?


अर्जुन अपने सखा, वीर और भगवान् से कैसे प्रेम कर रहा है? उस प्रेम में वह प्रश्न कर रहा है और प्रश्नों के उत्तरों में अपने प्रिय, अपने भगवान्, अपने इष्टदेव कृष्ण को अपने प्रेम में आकृष्ट कर लेता हैउस प्रेम ने फिर स्वरूप धारण कर लिया है, श्रीमद् भगवद्गीता काभगवान् की प्रेमपूर्ण कृपा को अर्जुन की प्रेमपूर्ण जिज्ञासा भगवद् गीता के रूप में खींच लाती है


अर्जुन इस विश्व पर अद्भुत उपकार कर रहा हैवह उस समग्र प्रेम को, भगवान् कृष्ण के प्रति किए गये प्रेम को, अनमोल भगवद् गीताके माध्यम से प्रसाद रूप में लोकार्थ बाँट देता है

साधसंगत जी, वही अनमोलभगवद् गीतासमस्त जगत् का प्राण बन जाती है और मुक्ति का साधन बन जाती है


कलियुग आया है

 

इस भयानक कलियुग में निरंकार कुछ नई लीला रचता है, नया ही रंग चढ़ाता है, एक नया ही रूप सजाता हैसाधसंगत जी, दस वर्ष पूर्व वैशाखी के अवसर पर खालसा सृजना के त्रिशताब्दी शुभ दिवस पर साहिब गुरु गोबिंद सिंह जी के इशारे और हुक्म से सन् 1999 में यह सेवा शुरू की हैइस वर्ष उस प्रकाश की एक और शताब्दी हैउसके बाद श्री गुरु ग्रंथ साहिब के गुरुगद्दी दिवस की एक और त्रिशताब्दी है और उसके साथ ही निरंकार जिस स्वरूप को धारण करके एक से दो बनकर अवतरित हुए थे, जिन्होंने इस कलिकाल में नया खेल खेला है, धर्म को एक नया ही रंग चढ़ाया है, उनके ज्योति-जोत समाने की त्रिशताब्दी भी उपस्थित हुई हैइन्हीं दस वर्षों में मेरे दशमेश पिता ने अपनी लीला के खेल खेले हैंमेरे निरंकार के ये तीन पृथक-पृथक पक्ष हैं


पहला पक्ष प्रेम के उस प्रकाश का है, जिसे दशमेश पिता ने केशगढ़ साहिब में खेला हैजिस प्रकाश को उन्होंने इस संसार में प्रकट किया है, उसी प्रकाश पर अपने वंश सहित सर्वस्व को न्योछावर कर दिया है

दूसरा पक्ष है, श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आविर्भाव काजिस धर्म और सेवा के लिए साहिब आए हैं, फिर जिस प्रकार की प्रेम आहूतियाँ दी हैं, और फिर उन प्रेम आहूतियों में शिखर के रंग भरे हैं, रंग चढ़ाए हैं, उत्साह बढ़ाया है, महान् आहूतियों की सेज सजाई है और जगत में श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश किया हैसाधसंगत जी, उनके तीसरे पक्ष का स्वरूप है कि जिस तरह इस संसार में, इस मृत्युलोक से मुक्ति की खातिर निरंकार अपना सब कुछ कुर्बान किए जा रहा हैउस समय अपने आप को बिलकुल निस्पृह करके, पृथक करके, साहिब के चरणों में सब कुछ समर्पित करके, फिर किस तरह उस प्रकाश में अन्तर्धान हो जाते हैंसाधसंगत जी, यह अकथनीय कथा है, जिसको आपके साथ सांझा करने का विनम्र प्रयास है


इक नवां ही चोज़ दिखाइया , इक नवां ही रंग चढ़ाइआ

इक नवां ही खेड रचाइया , इक नवां ही रूप सजाइया

तिन सौ साल होए गुरु नानक ने, इक नवां ही चोज़ दिखाइया

सरबंस दे पुफलां दी सेज ते, गुरु ग्रंथ दा आसण लाइआ

धंन धंन गुरु गोबिंद सिंह जी निराला इश्क निभाया

वाह वाह गुरु गोबिंद सिंह जी, धंन धंन गुरु गोबिंद सिंह जी

सरबंस दे फुल्लां दी सेज ते, गुरु ग्रंथ दा आसण लाइआ



 

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