बलिदान का रंग

 


साधसंगत जी, 

जिसका मुख गुरु की ओर है, जो गुरु की ओर चलता है, गुरु के विचार के अनुसार रहता है

उसके लिए गुरु नानक पातशाह एक फ़रमान दे रहे हैं-
सदा रहै निहकामु जे गुरमति पाईऐ।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-752
गुरु नानक पातशाह का यह ‘शबद’, यह प्रकाश, महान् बाबा नंद सिंह साहिब के तेरह नियमों के प्रकाश में एक नियम के रूप में सबसे आगे है। 
साधसंगत जी, बाबा नंद सिंह साहिब के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में निष्कामता समाई हुई थी।

इतने मासूम साहिबज़ादे... 
क्या उनकी कोई एक भी कामना थी? 
वे कितने इच्छा रहित थे? 
क्या इच्छा की एक भी तरंग उनमें थी? 
उन्होंने क्या अपने लिए एक भी अरदास की, 
एक भी विनती की? 
क्या उन्होंने अपने लिए कोई याचना की? 
क्या उन्होेंने किसी शक्ति का प्रयोग किया? 

गुरु घर में शक्ति का प्रयोग करना मना है। साधसंगत जी, शक्ति तो गुरु साहिब के चरणों में रुलती-फिरती है। साहिब के साहिबज़ादों के चरणों में भी रुलती-फिरती है। 

आप बाबा अटल जी एवं बाबा गुरुदित्ता के तो इतिहास से परिचित हैं कि जब गुरु हर गोबिंद साहिब ने थोड़ी सी नाराज़गी प्रकट की है तो इन दोनों ने जाकर समाधि लगाई, कि अपने प्राण ही  त्याग दिए।

साधसंगत जी, साहिबज़ादों ने कोई शक्ति का प्रयोग किया? वे उस महान् प्रकाश के पदचिह्नों पर चलते हुए गुरु नानक पातशाह के इस फ़रमान को किस तरह प्रकाशित करते हैं।

साहिब ने, सच्चे पातशाह ने हमारे उपकार के लिए, इस संसार और इस युग के उपकार के लिए और भविष्य की दुनिया तक के लिए सारे दायित्व अपने ऊपर लेकर कैसे-कैसे खेल खेले हैं? कौन से साधनों का उन्होंने उपयोग किया? आश्चर्य है कि कैसे रंग उन्होंने भरे हैं। 

गुरु नानक पातशाह फ़रमाते हैं-
नानक रूंना बाबा जाणीऐे जे रोवै लाइ पिआरो।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-579

सारा संसार सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए विलाप कर रहा है। अपने परिवार की खातिर (‘मैं-मेरी’ के रंगों में कष्ट उठाता है, रोेता है), जब भी ‘मैं-मेरी’ को धक्का लगता है तो वह रोता है और विलाप करता है। 

गुरु नानक साहिब फ़रमाते हैं कि यह सारा संसार विषय-विकारों में ही अपना जन्म नष्ट कर रहा है, पर साहिब जो उपाय बतलाते हैं कि यह विलाप यदि सतिगुरु की खातिर और उसके प्यार में हो तो वह फिर लेखे में है। 

बाबा नंद सिंह फ़रमाने लगे- सतिगुरु के प्यार में रुदन करना, उनके प्यार में भावुक होकर अश्रु बहाना यह हमारे मन की कालिख को धो देता है।

जनम जनम की इसु मन कउ मलु लागी काला होआ सिआहु।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-651

जिस समय भी कोई नम्रता और दीनता (गरीबी) में पश्चाताप स्वरूप अपने पापों, भूलों को याद करके रोता है तो यह ऐसा असर करता है कि धर्मराज के पास उस प्राणी का जो लेखा-जोखा है, वह उन अश्रुओं से बिल्कुल धुल जाता है।

साधसंगत जी, साहिबज़ादों ने आश्चर्यजनक और अद्भुत खेल खेला है। जो कोई भी इस ओर थोड़ा-सा भी ध्यान देता है तो उस खेल की चुम्बकीय शक्ति अपनी ओर खींच लेती है। साहिब ने स्वयं को कसौटी बनाकर जितना और जो कुछ अपने ऊपर झेला है, धैर्यपूर्वक सहन किया है उसे याद करके जिस भी मनुष्य के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगती है, ऐसा मनुष्य इस संसार की नश्वरता से पार होकर उस अविनाशी के प्रेम रूपी प्रकाश लोक में प्रवेश कर जाता है।

इस अंधकारपूर्ण युग में, साहिब ने, जो रंग प्रेम के प्रकाश में भरे हैं, धर्म के प्रकाश में भरे हैं और समय के प्रकाश में भरे हैं, उसके साथ हम भी भूल न जाएँ कि पूज्य माता गुजरी जी ने उनमें कौन सा रंग भरा है? 

वह माता गुजरी ही थीं जिन्होंने प्रसन्न मन-मस्तक से अपने सरताज निरंकार स्वरूप गुरु तेग बहादुर साहिब को महान् बलिदान हेतु विदा किया। सच्चे पातशाह गुरु गोबिंद सिंह साहिब ने बाल्यावस्था में ही गुरु तेग बहादुर सिंह को फ़रमाया था-

सच्चे पातशाह! जो एक महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है तो आपसे बढ़कर महापुरुष और कौन हो सकता है?’

 अपने प्रसन्न मन-मस्तक से अपने सरताज को विदा करके पूज्य माता गुजरी जी ने निरंकार स्वरूप पुत्र श्री गुरु गोबिंद सिंह को अपने सीने से लगा लिया।

साधसंगत जी, वह जगत्-माता त्याग और बलिदान के कैसे रंग भर रही है? 

जिस समय वह फतेहगढ़ साहिब के उस ठंडे बुर्ज में कैद है और अपने पौत्रों (साहिबज़ादों) के हृदय में जो प्रकाश वह दे रही है और उस समय भी उन्हें जो सीख दे रही है, वह बलिदान की प्रेरणा की अमर गाथा है। वे दोनों साहिबज़ादे, गुरु गोबिंद सिंह साहिब के इतने लाडले और कोमल हैं कि माता गुजरी जी मन में कोई संकोच लाए बिना अपने प्रसन्न हृदय तथा मन-मस्तक के साथ महान् बलिदान के वास्ते उन्हें भेज देती है।

साधसंगत जी, जगत्-माता ने उस प्रकाश में उस बलिदान का रंग भरा है वह अद्भुत है, सीमातीत है। जिस समय सच्चे पातशाह साहिब कलगीधर अपने वंश सहित सर्वस्व भेंट कर देने वाला पूर्ण प्रकाशमय रंग भर रहेे थे उस समय बलिदान के उस खेल में पूज्य माता जगत्-माता, पूज्य माता गुजरी जी जिस प्रकार का प्रकाश भर रही थी, यह समूचा प्रकाश, जो इस युग में इनके द्वारा भरा गया है उस तरह का प्रकाश इस युग में कहीं भी अन्यत्र नज़र नहीं आता। 

जगत्-माता एक विलक्षणीय प्रकाश में अपने बच्चों के साथ जिस प्रकार का लाड़-लड़ा रही है तो ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने इस जगत के सभी बच्चों के प्रति लाड़-लड़ाया है। कारण, जगत्-माता तो सभी बच्चों की माता है। जब तक यह संसार रहेगा वह सारी दुनिया के बच्चों के साथ यह लाड़ लड़ाती रहेंगी। इस लाड़-लड़ाने के साथ जो सीख दी है उस सीख का प्रकाश सदा-सर्वदा सूर्य की भांति चमकता रहेगा।

साधसंगत जी, इस दिव्य खेल में गुरु गोबिंद सिंह साहिब और माता गुजरी जी ने निरंकार के जो रंग भरे हैं और जिस तरह अपने सारे बच्चों से जो लाड़ लड़ाया है, इसमें उनके प्रेम और बलिदान का जो प्रकाश है वह स्थिर है, अटल है, अभंग है। यह प्रेम प्रकाश जिससे द्रवीभूत हुए सभी बच्चों के साथ लाड़ लड़ा रहे हैं, वह सदा हमारे साथ भी लाड़ लड़ाता रहेगा। यह प्रकाश 
युग -युगांतर तक अटल है, स्थिर है, अभंग और अखण्ड है तथा अविनाशी है। संसार के जन्म-मरण के चक्र में फंसे हम सब प्राणियों को यह प्रकाश इस नश्वरता से बाहर निकालकर उस स्थिर प्रकाश में ले जायेगा।
गुरु नानक दाता बख़्श लै॥
बाबा नानक बख़्श लै॥

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