नाम की अजर दात

बाबा नंद सिंह जी महाराज द्वारा सुनायी गयी एक साखी का उल्लेख यहाँ बहुत सार्थक है- ऋषि शुकदेव उम्र में थोड़े बड़े हुए तो अपने पूज्य पिताश्री वेदव्यास जी से उन्होंने नाम की ‘दात’ (देन) की विनती की। ऋषि वेदव्यास जी ने सोचा कि पिता होने के नाते से पुत्र का विश्वास पिता के गुरु-रूप में पूरी तरह स्थिर नहीं हो सकता। यह सोचकर उन्होंने अपने पुत्र शुकदेव से कहा- जाओ और जाकर राजा जनक से नाम की दात प्राप्त करो। ऋषि शुकदेव चल पड़े और रास्ते में सोचते गए कि मैं स्वयं ऋषि हूँ और महर्षि का पुत्र हूँ, पर नाम की दात हेतु मैं एक राजा के पास जा रहा हूँ। ऋषि शुकदेव राजा जनक के पास पहुँचे। राजा जनक ने उन्हें दरबार में बुलाया। आवभगत करके उनका सत्कार किया। ऋषि शुकदेव ने उन्हें अपने आने का उद्देश्य और पिताजी की प्रेरणा का विस्तार से उल्लेख किया। ऋषि शुकदेव के मन की अवस्था जानने के लिए राजा जनक ने एक लीला रची। बाहर से द्वारपाल भागता हुआ आया और राजा जनक को विनयपूर्वक सूचित किया- महाराज, महलों में आग लग गई है। इस पर राजा जनक ने फ़रमाया- देख नही रहे कि हम एक ऋषि से वार्ता क...