बाबा नन्द सिंह जी महाराज के श्री चरणों का आशिक़ - बाबा नरिंदर सिंह जी
बाबा नरिंदर सिंह जी महान् बाबा जी देहरादून के जंगलों में डेरा डाले थे। मेरे पिता जी अमृत समय एक बहती धारा में स्नान करने के उपरांत लौट रहे थे। |
पिता जी के हृदय में तीव्र इच्छा हुई कि वे किसी और के आने से पूर्व बाबा जी के पवित्र दर्शनों का आशीर्वाद प्राप्त करें। फिर पिता जी ने खुद यह अनुभव किया कि यह प्रार्थना संभव एवं व्यावहारिक नहीं है क्योंकि बाबा जी तक पहुँचने के लिए उन्हें लम्बा रास्ता तय करना पड़ेगा और रास्ते में जहाँ-वहाँ बाबा जी के भक्त ठहरे हुए थे।
जब वे थोड़ी-सी दूर गए थे तो उन्हें यह देख कर अत्याधिक आश्चर्य हुआ कि बाबा जी बिल्कुल अकेले अँधेरे में चले आ रहे थे। गहन कृतज्ञता और सम्मान के साथ पिता जी महान् बाबा जी के पवित्र चरणों में गिर पड़े और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे।
जिस क्षण पिता जी ने अपने हृदय में प्रार्थना की थी, उस समय सब हृदयों के ज्ञाता महान् बाबा जी भजन कर रहे थे वह तुरंत अपने प्यारे की इच्छा पूर्ति के लिए चल पड़े थे।
ज्यों ही पिता जी ने बाबा जी के चरणों से सिर उठाया बाबा जी ने भावपूर्ण कृपा-दृष्टि उन पर डाली और कहा- तुम ऐसा ही तो चाहते थे।
उस समय पिता जी ने बाबा जी के समक्ष अपनी दृढ़ इच्छा व्यक्त की कि वे समस्त सांसारिक चीजों को छोड़कर अपना सम्पूर्ण शेष जीवन बाबा जी की सेवा में अर्पित करना चाहते हैं।
बाबा जी ने पिता जी से पूछा - फिर करोगे क्या?
पिता जी ने नम्रतापूर्वक बतलाया - गरीब निवाज़, मैं आप के लिए कोई असुविधा खड़ी नहीं करूँगा। अपना खाने-पीने आदि का इंतज़ाम खुद करूँगा। गरीब निवाज़, भंगी के रूप में मुझे केवल अपने कमोड की सेवा बख्श दो।
पिताजी ने ज़ारोज़र रोते हुए कहा - मैं आप का चूहड़ा (भंगी) हूँ।
डिप्टी, अभी समय आया नहीं है।
उसके बाद पिता जी प्रतिदिन मानसिक रूप से अपने परम पूज्य बाबा जी का कमोड साफ करने लगे। वह स्वयं को गर्वपूर्वक बाबा जी का चूहड़ा(भंगी) कहा करते थे।
बाबा जी की पवित्र संगत के चरण जहाँ पड़ते थे, वहाँ की धूलि पिता जी अपने शरीर पर मलते थे। इस धूलि में वे इस प्रकार बार-बार लौटते थे जैसे कि गहरे आनंद-सागर में तैर रहे हों। इस पवित्र धूल में स्नान करते हुए उन्हें अत्याधिक उल्लास प्राप्त होता था। उन्होंने स्वयं को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक रूप से महान् बाबा जी के पवित्र चरणों की धूल ही बना लिया था। दुनिया की किसी भी चीज में उनको वह आनंद नहीं मिलता था जो इस पवित्र धूलि में मिलता था। उनकी निजता और अहंकार इस पवित्र धूलि में लीन हो गए थे, अदृश्य हो गए थे। इस पवित्र धूलि से प्राप्त विनम्रता की सुगंध उनके चेहरे पर साफ झलकती, साथ ही उस पर अद्वितीय आनंद और शान्ति होती थी।गुरु की रेणु नित मजनु करउ॥जनम जनम की हउमै मलु हरउ॥
माघि मजनु संगि साधूआ धूड़ी कर इसनानु॥हरि का नामु धिआई सुणि सभणा नो करी दानु॥
जन के चरन बसहि मेरै हीअरै संग पुनीता देही॥जन की धूरि देहु किरपा निधि नानक के सुखु एही॥
निरमल भए सरीर जब धूरी नाईआ॥मन तन भए संतोख पूरन प्रभु पाइआ॥
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