महाराजा रंजीत सिंह जी का गोबिंद प्रेम
पूज्य पिताश्री ने एक बार पावन साखी सुनाई-
महाराजा रंजीत सिंह जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का पावन पाठ सुनकर, आदरवश दशमेश पिता की कलगी को चूमा, मस्तक पर लगाया और फिर प्रणाम किया। वे दरबार में आकर विराजे और एक प्रश्न किया-
इस समय इस धरती पर क्या कोई ऐसा भाग्यशाली सिक्ख होगा जिसने अपने नेत्रों से मेरे साहिब सतिगुरु, कलगीधर पिता, सच्चे पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब के दर्शन किये हों?
साधसंगत जी, खोज शुरू हो गई। पहाड़ की एक कन्दरा में एक निहंग सिंह को जा ढूँढा। जब उससे पूछा गया तो उसने उत्तर देते हुए कहा- मैंने अपने नेत्रों से साहिब सच्चे पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब के दर्शन किये हैं।
निहंग सिंघ ने प्रसन्न होकर सेवको से पूछा-यहां पर आपका किस तरह आना हुआ है?
सेवकों ने उत्तर दिया- महाराजा रंजीत सिंह ने यह प्रश्न किया है, उनके हृदय में यह प्यास उठी है कि क्या इस समय धरती पर कोई ऐसा गुरसिख भी है जिसने दशमेश पिता के दर्शन किये हों? बस इसी खोज में यहाँ आए हैं।
प्रसन्न हुए सेवक कहने लगे- हम अभी जाकर आपका पता महाराजा रंजीत सिंह को सूचित करते हैं और वे स्वयं ही आपके दर्शनार्थ यहाँ आएंगे।
प्रसन्न हुए सेवक कहने लगे- हम अभी जाकर आपका पता महाराजा रंजीत सिंह को सूचित करते हैं और वे स्वयं ही आपके दर्शनार्थ यहाँ आएंगे।
यह सब सुनकर निहंग सिंघ कहने लगा- मैं स्वयं ही आपके साथ चलता हूँ ।
और वे उन सेवकों के साथ दरबार आ पहुँचे हैं। जिस समय निहंग सिंघ तशरीफ लाए हैं, उस समय दरबार लगा हुआ हैै। महाराजा रंजीत सिंह स्वागत में उठ खड़े हुए और अपना मस्तक उनके चरणों पर रख दिया। महाराजा ने उनके चरणों को चूमा, अपने दाड़े (लम्बी दाढ़ी) से निहंग सिंह के चरणों को सम्मानपूर्वक स्पर्श करते हुए साफ किया और फिर हाथ जोड़कर पूछा- आपने मेरे साहिब, मेरे सतगुरु, मेरे प्रीतम, मेरे बाबुल के दर्शन अपने इन नेत्रों से किये हैं?
उस समय वह निहंग सिंह फ़रमाने लगे- रंजीत सिंह ! हमने साहिब श्री गोबिंद सिंह के हुक्म और आज्ञा में रहते हुए उनकी ही छत्राछाया में तीन युद्ध लड़े हैं।
महाराजा रंजीत सिंह एक मन और एक चित्त होकर यह सब सुन रहे हैं। निहंग सिंह ने आगे कहा -जिस समय भी हम युद्ध में जाते थे, उस समय साहिब सच्चे पातशाह एक चैकी पर नंगे पाँव खड़े हो जाते थे। हम सभी योद्धा पंक्तिबद्ध होकर उनके चरणों पर अपना मस्तक रखते, मस्तक रखकर गुरु गोबिंद सिंह साहिब के चरण-कमलों को चूमते, जिस समय अपना शीश ऊपर कर उनके दर्शन करते, उस समय साहिब अपने पावन मुख से तीन बार ‘निहाल-निहाल-निहाल’ उच्चार कर हमें अनुग्रहीत करते।
महाराजा रंजीत सिंह एक मन और एक चित्त होकर यह सब सुन रहे हैं। निहंग सिंह ने आगे कहा -जिस समय भी हम युद्ध में जाते थे, उस समय साहिब सच्चे पातशाह एक चैकी पर नंगे पाँव खड़े हो जाते थे। हम सभी योद्धा पंक्तिबद्ध होकर उनके चरणों पर अपना मस्तक रखते, मस्तक रखकर गुरु गोबिंद सिंह साहिब के चरण-कमलों को चूमते, जिस समय अपना शीश ऊपर कर उनके दर्शन करते, उस समय साहिब अपने पावन मुख से तीन बार ‘निहाल-निहाल-निहाल’ उच्चार कर हमें अनुग्रहीत करते।
रंजीत सिंह! उस समय जो हमारी आह्लादपूर्ण मनःस्थिति होती, उसे कहने में वाणी असमर्थ है। साहिब की दृष्टि से जो बख़्शीश, अमृत बरसता था, उसे तो वही बता सकता है जिसने उस अमृत में स्नान किया हो। उस समय यह वीर रस का भाव ही सबसे बड़ी प्रेरणा थी। चलते समय ऐसा अनुभव होता कि साहिब की अमृत दृष्टि ने हमें अमर बना दिया है, अब युद्ध में जाकर मृत्यु से जूझें। हमें ये भी अनुभव होता कि हम मृत्यु पर विजय पा चुके हैं। दशमेश पिता की उस अमृत दृष्टि से प्रेरित होकर युद्ध में लड़ना, फिर या तो जीत के आना अथवा वहीं युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त होना, क्या मजाल है कि किसी भी सिक्ख ने शत्रु को पीठ दिखाई हो।
रंजीत सिंह ! उसी मस्ती और सुरूर में बैठे हुए हम अभी तक अपने साहिब को याद कर रहे हैं। उसी प्रेम और वैराग में हम एक-एक श्वास जी रहे हैं।
पिताजी ने फ़रमाया- जो अपने सतिगुरु का, निरंकार भावना और निरंकार दृष्टि से सत्कार करता है, जो सतिगुरु को ज़ाहरा-जहूर भाव से प्रेम करता है, हाज़रा हजूर भाव से निहारता है तो-
लख खुसीआ पातिसाहीआ जे सतिगुरु नदरि करेइ।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-44
अब जिसका सत्कार किया है, जिससे प्रेम किया है, उसे श्रद्धाभाव से निहारा है। उसकी कृपादृष्टि के विषय में साहिब आप ही फ़रमाते हैं-
लख खुसीआ पातिसाहीआ जे सतिगुरु नदरि करेइ।।
सतिगुरु मेरा सदा सदा ना आवै न जाहि।।
उहु अबिनासी पुरखु है सभ महि रहिआ समाइ।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-759
सतिगुरु मेरा सदा सदा.... वह अविनाशी है, निरंकार स्वरूप है, दसों पातशाहिआं अपनी तेजस्विता से देदीप्यमान (जलवा-फरोज़) थीं। पिताजी की अश्रुपूर्ण भावावस्था (वैराग) देखकर बाबा नंद सिंह साहिब ने फ़रमाया-
पुत्र! क्या तुम उस कृपादृष्टि को अनुभव करना चाहते हो? जब दसों पातशाहिआं प्रत्यक्ष विराजित हुईं, वे दसों पातशाहिआं, जिनकी कृपा दृष्टि में ईश्वरीय लोक (दरगाह) की संपूर्णऐश्वर्य (बरकतें) प्रवाहित हो रहे हैं। उस समय जब दसों पातशाहियां एक स्वरूप होकर उस प्रेम को अंगीकार कर रही हैं, उस स्थिति में वह स्वरूप कहाँ स्थित रहता है? वह स्वरूप अपनी कृपादृष्टि में ‘लख खुसीआ पातशाहीआं’ वाला सुरूर, मस्ती नशा व खुमारी के साथ हृदय में प्रवेश कर जाता है।
फिर पिताजी फ़रमाने लगे-
उस मस्ती को देने वाले केवल गुरु नानक साहिब, गुरु गोबिंद सिंह साहिब और श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी ही हैं, कोई और नहीं।
उन्होंने आगे फरमाया-
जो यह बख़्शीश कर सकता है, वही उस रस को स्वयं ही चख सकता है। कारण, मनुष्य की ‘मैं’ इस दिव्य रस को नहीं चख सकती।
गुरु नानक दाता बख्श लै, बाबा नानक दाता बख्श लै।
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