जिन प्रेम कीओ तिन ही प्रभ पाइओ॥- प्रेम का उत्कर्ष क्या है?

साधसंगत जी

एक आश्चर्य घटित हो गया। नौ साल की अल्पावस्था में वे गुरु नानक की गद्दी पर विराजमान होते हैं और 33 साल की आयु में परख-पात्रता (परचा) को प्रतिष्ठित करते हैं। इन 24 सालों में संगत ने दशमेश पिता के बड़े अनोखे खेल देखे हैं।
उनकी प्रेम लीला देखी है, पर प्रेम के उस खेल में आखिर पारंगत कौन होता है?
पिताजी एक दिन कहने लगे कि-
प्रेम का उत्कर्ष क्या है? प्रेम का सार-रस क्या है? प्रेम का सच्चा अर्थ क्या है? प्रेम की असल रूप रेखा क्या है? 
फिर स्वयं ही उत्तर देते हुए कहने लगे कि-
प्रेम का सार-रस बलिदान है। प्रेम का उत्कर्ष भी बलिदान है। प्रेम की रूपरेखा भी बलिदान है और प्रेम का अर्थ भी बलिदान ही है।

बाबा नंद सिंह साहिब ने फ़रमाया कि-
साहिब सतगुरु के साथ जो भी प्रेम करता है, उसे तो देना-ही-देना है, लेना तो कुछ भी नहीं। पिताजी ने आगे कहा कि बाबा नंद सिंह साहिब ने हमें इस तरह समझाया कि-
प्रेम में प्रेमी और प्रेम दोनों लोप हो जाते हैं। रहता है तो सिर्फ वह प्यार, जिसमें ‘मैं’ का भाव रहता ही नहीं। फिर रहता कौन है? उस प्यार में रहता है सिर्फ ‘तूँ’। 

जिस समय प्रेम की परख ली है (‘परचा पाइआ है’), उस समय आखिर कौन उठकर खड़ा हुआ है। वे हैं भाई दयाराम जी, जो संगत के जूते (जोड़े) की सेवा करते थे, वे सीधे अपने परम लक्ष्य की ओर चल पड़े हैं। वे गुरु गोबिंद सिंह साहिब के साथ प्रेम करते हैं। अपने साहिब सतगुरु के साथ निर्मल और खालस प्रेम करते हैं। वह प्रेमी जिस प्रेम को अपने अन्तर में छिपाए बैठा है, वह उस निर्मल और खालस प्यार की राह पर निश्चिंत होकर चल रहा है। 
अपना शीश झुकाकर कहता है कि- ‘मैं तेरा, मैं तेरा,’ शीश हाजिर है। 

साधसंगत जी, उस प्रेम-परीक्षा में पाँच ही उत्तीर्ण हुए हैं। इस युग में यह पहली बार हुआ है कि भगवती की एक चोट के साथ निरंकार ने पाँच भक्तों को प्रकट किया है। क्या खेल खेला है साहिब ने? उन्होंने फ़रमाया है-
साचु कहों सुन लेहु सभै जिन प्रेम कीओ तिन ही प्रभ पाइओ
‘साचु कहों’...सभी सत्यों में जो महान सत्य है, उसे कह रहा हूँ कि-
जिन प्रेम कीओ तिन ही प्रभ पाइओ॥....
जिन्होंने उस प्रेम स्वरूप निरंकार के साथ प्रेम किया है, वे जानते हैं कि उस प्रेम तत्त्व, प्रेम-मूल में सिर्फ प्रेमी ही जा सकता है। 
‘तिन ही प्रभ पाइओ’ ...केवल प्रेम से ही उस प्रेमी के साथ अभेदता हो सकती है। 
उस समय ही प्रेम के अर्थ समझ में आए हैं कि जिस रीति से आप अपना सब कुछ अपने साहिब सतगुरु पर न्यौछावर कर दें, वही प्रेम है।
गुरु नानक दाता बख़्श लै। बाबा नानक बख़्श लै।

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