त्याग के अवतार - धन्य- धन्य बाबा नंद सिंह साहिब

 


पिताजी ने बाबा जी के जीवन से सम्बन्धित एक पवित्र प्रसंग सुनाया-

पूर्णिमा का शुभ अवसर था। बाबा नंद सिंह साहिब जंगल में तपस्या कर रहे थे। पूर्णिमा के अवसर पर चहुँ ओर से संगतें बाबा जी के पास पहुँच जाती थीं। आज हज़ारों की संख्या में संगत पहुँची हुई है। 

उसी जंगल में गुरु नानक पातशाह का दरबार सजा है। पूर्णिमा का चाँद शीतल किरणें बिखेर रहा है। इसी दौरान वहाँ एक महात्मा पहुँच गए हैं। भगवे वस्त्रधारी उस महात्मा के आने का उचित स्वागत कर सेवकों ने बाबा नंद सिंह साहिब के निकट दायीं ओर उनका भी आसन लगा दिया है।
समागम चल रहा है। कीर्तन का भोग संपन्न हुआ है। ध्यानावस्था में बैठे बाबा जी ने अपने पवित्र नेत्र खोले हैं। रागी सिक्ख बंधुओं के साथ-साथ उनकी नज़र अपने दायीं ओर बैठे महापुरुष पर भी पड़ी है तो उन्होंने पूछा-  महापुरुषो! आपने यहाँ पर पधारने की कृपा कैसे की है?
इधर उन महात्मा के मन में क्या विचार चल रहा है?  वे महात्मा यह सुनकर इधर आए थे कि बाबा नंद सिंह साहिब महान त्यागी हैं। उन सरीखा त्यागी संत कोई नहीं है और यहाँ आने पर उन्होंने देखा है कि जंगल में ही ऐसा अद्भुत दरबार सजा हुआ है कि हज़ारों की संख्या में उपस्थित संगत भावलीन होकर झूम रही है। कीर्तन दरबार की मधुर गुंजार सुनते हुए अनगिनत सेवादार संगत की सेवा-सुविधा के लिए इधर-से-उधर सक्रिय नज़र आ रहे हैं। उन्हें ख्याल आया कि त्याग में भी ऐसा भव्य दरबार और वह भी दूरस्थ
जंगल में सज्जित है। यह सब विचार आते ही वे जिज्ञासावश बाबा जी से बोले- हे गरीबनिवाज़! मैं त्याग का अर्थ समझने के लिए आपके पास आया हूँ। हृदय की बात जानने वाले बाबा नंद सिंह साहिब ने स्वाभाविक रूप से उनकी ओर देखा, पर उनके प्रश्न का कोई जबाव नहीं दिया।
जिस समय समागम का भोग (समाप्ति) पूरा हुआ है। बाबा नंद सिंह साहिब नम्रतापूर्वक अपने आसन से उठे हैं। 

उन्होंने कभी संगत की बराबरी नहीं की। रागियों को भी अपने से ऊँचा स्थान दिया है। संगत के स्थान-तल से भी नीचे एक खोदे हुए गड्ढे़ में अपना आसन लगाते हैं। 

उस आसन से उठकर उन्होंने चारों ओर संगत को देखा और यथानियम हाथ जोड़कर वे अब संगत से जाने की आज्ञा ले रहे हैं।
दीवान सम्पन्न होने के बाद बाबा जी इसी रीति से चुपचाप चले जाते थे। बाबा जी के चले जाने के कुछ देर बाद सेवा-प्रबंध से फुर्सत पाए सेवक आपस में बात कर रहे हैं कि पता नहीं बाबा जी किधर चले गए हैं। उन्होंने मुड़कर भी नहीं देखा, लौटकर भी नहीं आए। जिस समय ये बातें ही हो रही थीं तो पौ फूटने लगी थी, अमृत वेला हो चुकी थी। सभी आपस में विचार कर रहे हैं कि बाबा जी चले किधर गए !

बाबा जी का आदेश यह था कि जब वे समागम के स्थान से चले जाएँ, उसके बाद जो कुछ भी बचा हुआ हो उस सबको अग्नि की भेंट चढ़ा दो। इसी के अनुसार बची हुई सभी वस्तुओं का ढेर इकट्ठा किया गया और सबको अग्नि की भेंट कर दिया। महात्मा जी ने यह सब कुछ अपनी आँखों से देखा तो उनके आँसू निकल आए, क्योंकि जिस समय उन्होंने बाबा नंद सिंह साहिब से त्याग संबंधी यह प्रश्न पूछा था तो वहाँ उपस्थित कुछ सेवकों और साथियों ने भी इस प्रश्न को सुना था। अब प्रश्नकर्ता महात्मा रो रहे हैं और रोते हुए स्वयं से कह रहे हैं कि मैंने आखिर बाबाजी से यह प्रश्न क्यों और कैसे कर दिया?


इस घटना का उल्लेख करते हुए पिताजी बता रहे हैं कि पश्चाताप में रुदन करते हुए वे महात्मा कह रहे हैं कि त्याग पर बहुत से विद्वानों ने ग्रन्थ लिखे हैं और त्याग की परिभाषा दी है। बड़े-बड़े कथा-वाचक संतों ने भी त्याग के बारे में बहुत कुछ कहा है। मैंने भी वे किताबें पढ़ी हैं। बड़े साधु-महात्माओं की कथा भी सुनी हैं कि त्याग क्या है?
बाबा नंद सिंह साहिब ने प्रश्न का उत्तर नहीं दिया, पर जिस प्रकार वह आसन से उठे उसी प्रकार वे बाहर की ओर चले गए। कोई वस्तु तक अपने साथ नहीं ली, किसी सेवक को भी अपने साथ नहीं लिया और वापस तो लौटे ही नहीं। आज सही अर्थों में त्याग के दर्शन हुए हैं। त्याग का अर्थ समझ में आया है। बाबा नंद सिंह साहिब कथनी में नहीं पड़ते थे। मैं यदि विचारशील होता तो समझता। मैंने अब तक कितने ग्रन्थ पढ़े हैं, बड़े-बड़े महापुरुषों के दर्शन किए हैं। उनके मुख से त्याग की कथाएँ सुनी हैं, उनके वचन सुने हैं। पर अगर त्याग के दर्शन किए हैं तो बाबा नंद सिंह साहिब के रूप में। वे केवल त्याग के अर्थ ही नहीं बल्कि त्याग के अवतार हैं। बाबा नंद सिंह साहिब तो स्वयं में सम्पूर्ण त्याग-ही-त्याग रूप हैं।


साधसंगत जी, वे महात्मा जी निरंतर रोये जा रहे हैं और संगत से क्षमा माँगते हुए कह रहे हैं कि जैसा प्रश्न मैंने किया है उसका सटीक उत्तर बाबा नंद सिंह साहिब ने दे दिया है। साध संगत जी, जो बाबा नंद सिंह साहिब थे, जैसा उनका जीवन था अपने आप में उसकी कोई उपमा नहीं और फिर महीनों बाद पता चला कि एक महान ऋषि हड़प्पा के गहरे जंगलों में अखण्ड समाधि लगाए बैठा है।
पतोकी (नगर) की संगत ने उन्हें जा ढूँढ़ा। संगत ने जिन्हें ढूँढ़ा है वह कोई और नहीं वह मेरे बाबा नंद सिंह साहिब ही थे।


इक तिल दी तमा नां रखण बाबे,
जोत नूरों नूर हुंदे।।
कदे माया नूं हथ नां लाउण बाबे,
ऐने बेपरवाह हजूर हुंदे।।
सुई दे नक्के जिन्नी शै
बणाई नहीं, अपणाई नहीं।।
ऐसी खेड रचा गए ने,
वाह वाह बाबा नंद सिंह जी।।
कोई निशानी पाई नहीं
भोरे तक वी ढवा गए ने।।
गुरु ग्रन्थ दे नाम ते आपणा
नाम ते निशान मिटा गए ने।।
बाबा नंद सिंह जी ते दर ते
कामिनी-वंफचन दा स्थान नहीं है।।
बाबे नंद सिंह जी ते दर ते
कोई माया परवान नहीं है।।
ऐथे जो वी सवाली आए
कोई हथों न खाली जाए।।
कामधेन ते कलप विरछ वी
इथों मंगां मंगण आए।।
सुणो मेरे वीर जीओ,
बाबा नंद सिंह जी दी अमर कथा।।

गुरु नानक दाता बख्श  लै, 

बाबा नानक बख्श लै।


 


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