विचित्र लीला के प्रकाशमय अंग

 


घोर अंधकारपूर्ण कलियुग में निरंकार, गुरु नानक पातशाह के रूप में पधारे। दस ज्योतियों के रूप में गुरु नानक निरंकार ने ऐसी आश्चर्यमयी और प्रकाशमयी विचित्र लीला रची है कि उस लीला के कुछ प्रकाशमय अंगों को आपके साथ विनम्रतापूर्वक साँझा करने का प्रयास किया जा रहा है।
दसों ज्योतियों की स्वरूपता में गुरु नानक निरंकार ने जो महान् बलिदान दिए तथा आचरण के जो महान् आदर्श स्थापित किए, उसका उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। 
जिस तरह चारों साहिबज़ादों ने बलिदान (शहादत) को चार चाँद लगाए हैं, इतिहास में उसकी कोई तुलना नहीं मिलती। ऐसी संत्रास भरी (दर्दनाक) लीलाएँ और इतने महान् बलिदानों का 239 वर्षों का खेल उन्होेंने किन अनुकरणीय आदर्शों के लिए रचा? 
गुरु नानक साहिब की गद्दी पर जिस समय दशमेश पिता श्री गुरु गोबिन्द सिंह साहिब, नम्रता और दीनता के प्रकाश में भरकर श्री गुरु ग्रंथ साहिब को सुशोभित करते हैं, प्रकाश करते हुए किस भावमयी अवस्था में वे श्री गुरु ग्रंथ साहिब की परिक्रमा करते हैं, चँवर झुलाते हैं और यह सब करने के बाद आप स्वयं निस्पृह होकर एक ओर खड़े (लांबे) हो जाते हैं, सजदा करते हैं और हम सबको ‘प्रगट गुरां की देह’ श्री गुरु ग्रंथ साहिब के चरण-कमलों में सौंपकर स्वयं अन्तर्धान (अलोप) हो जाते हैं।
साधसंगत जी, महान् सर्वस्व दानी श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब अपना सब कुछ कुर्बान कर देते हैं और गुरु नानक जी की गद्दी पर साहिब श्री गुरु ग्रंथ के स्वरूप में गुरु नानक निरंकार को ही सुशोभित करते हैं। उस समय एक बात तो प्रत्यक्ष होती है कि 239 वर्षों का दीर्घावधि खेल खेलते हुए साहिब ने हम पर दया व करुणा की है और निरंकार स्वरूप गुरु नानक पातशाह साहिब (श्री गुरु ग्रंथ साहिब) को भविष्य की सृष्टि तक के लिए हमें सौंप दिया है। यह सम्पूर्ण खेल श्री गुरु नानक साहिब दस ज्योतियों के रूप में स्वयं खेल रहे हैं।
पहला प्रकाशमय अंग
बाबा नंद सिंह साहिब ने अपने महान् प्रेम की आहूतियाँ देकर सम्पूर्ण भाव से गुरु परायण होकर दसों पातशाहियों की जाग्रत ज्योति में जिस समय निरंकार की ज्योति को प्रकट किया है, निरंकार को साकार स्वरूप श्री गुरु नानक के रूप में अपने सामने प्रतिष्ठित कर लिया है तो उन्होेंने स्वतः ही श्री गुरु नानक जी की प्रत्यक्ष सेवा की है। उस समय और भविष्य के लिए भी उन्होेंने कोई संशय नहीं रहने दिया कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब के स्वरूप में साक्षात् गुरु नानक पातशाह ही हमारे सामने विराजमान् हैं। 
साधसंगत जी, उस समय बाबा नंद सिंह साहिब हमें पुस्तक-दृष्टि से परे कर निरंकार दृष्टि और निरंकार भावना की ओर ले जा रहे हैं। यदि समग्र भावना का हमें बोध हो जाए तो जीवन में कोई भटकन रहती ही नहीं, हमारी भटकन समाप्त हो जाती है क्योंकि मालिक तो हमारे घर ही बैठा है।
दूसरा प्रकाशमय अंग
बाबा नंद सिंह साहिब फ़रमाने लगे-
सिक्खी बड़ी अनमोल है।  सिक्ख श्री गुरु नानक जी की सिक्खी का अधिकार (दावा) कभी न छोड़े। यह हमने श्वासों के साथ ली है और जीवन के आखिरी श्वास तक यह सिक्खी का निभनी चाहिए।

 वे फिर फ़रमाते है-

बड़े लोग पुस्तकें लिख गए हैं कि उत्तम कर्म क्या है और नीच कर्म क्या है? 
उन्होंने आगे फ़रमाया- 
गुरु और सतिगुरु के चरणों के साथ सिक्खी निभ जाए, सतिगुरु के चरणकमलों के प्रति सिक्ख का प्यार बना रहे तो इससे उत्तम कर्म कोई  नहीं है। सतिगुरु के चरण-कमलों के साथ न बन सके, न निभ सके इससे नीच (मंदा) कर्म कोई नहीं। 
सिक्ख, गुरु नानक साहिब का होकर रहे और सिक्खी का अधिकार कभी नहीं छोड़े, 
फिर अत्यन्त नम्रता और दीनता (गरीबी) से कहा-
सिक्ख बनने का हमने यत्न तो बहुत किया है, किन्तु अभी तक पूरे सिक्ख नहीं बने सके।
(डे़ लोक किताबां लिख गये हन कि उत्तम करम की है ते मंदा करम की है? 
फुरमाउण लगे - सिक्ख दी गुरु ते सतिगुरु  दे चरन कमलां नाल निभ जाए, सतिगुरु दे चरन कमलां नाल बण आवे इसतो उत्तम करम होर कोई नहीं। सतिगुरु  दे चरन कमलां नाल ना बण सके, ना निभ सके इसतों थल्ले मंदा करम कोई नहीं। सिक्ख गुरु नानक दा बणेआ रहे, सिक्खी दा दावा कदी ना छडे। 
फिर जिस निमरता ते गरीबी च फ़रमाया - असी सिक्ख बनण दा बड़ा जतन कीता है पर हाले तक पूरा नहीं बण सके।)

तीसरा प्रकाशमय अंग
बाबा नंद सिंह साहिब फ़रमाने लगे- 
सतिगुरु तो प्रेम और भावना का भूखा है।
गोबिंद भाउ भगत दा भुखा
साहिब श्री ग्रंथ साहिब पर जब तक हाजिर-नाजिर व ‘प्रकट गुरुओं की देह’ की भावना दृढ़ नहीं होती तब तक भटकना-ही-भटकना है। जिस समय यह भावना दृढ़ हो जाएगी कि गुरु नानक निरंकार हममें और हमारे समक्ष विराजित हैं तो उस समय भटकन समाप्त हो जाएगी। कारण, मालिक जो घर में बैठे हैं, गुरु नानक जैसे हमारे समक्ष घर में ही विराजमान हैं।
चौथा प्रकाशमय अंग
साहिब श्री गुरु नानक पातशाह फ़रमा रहे हैं-
जो जनमे से रोगि विआपे हउमै माइआ दुखि संतापे
से जन बाचे जो प्रभ राखे सतिगुरु सेवि अम्रित रसु चाखे
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-352
सतिगुरु की सेवा का स्वरूप क्या है?
सेवा करत होति निहकामी।। तिस कउ होत परापति सुआमी
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-286 
सतिगुरु सेवे तिलु न तमाइ
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-361
साहिब सच्चे पातशाह की सेवा पूरे निष्काम भाव से होनी चाहिए। उसी तरह, जिस तरह साहिबज़ादों ने अपना हर कार्य निष्काम भाव से किया है। 
साधसंगत जी, गुरु नानक पातशाह का फ़रमान है-
सदा रहै निहकामु जे गुरमति पाईऐ
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-752
गुरुमत का सुनहरी सिद्धांत निष्कामता है। 
साधसंगत जी, 
सतिगुरु के रोम-रोम में निष्कामता का यह अमृत समाया है।  
सतिगुरु के रोम-रोम से यह अमृत बरसता है। 
पिताजी उस समय कहने लगे कि कौन-सा अमृत?
एक बूंद गुरि अम्रितु दीनो ता अटलु अमरु न मुआ ॥
भगति भंडार गुरि नानक कउ सउपे फिरि लेखा मूलि न लइआ ॥
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग- 612

हम तो साहिब श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी श्री गुरु नानक पातशाह जी के सम्मुख बैठे हैं, उनके चरण कमलों में बैठे हैं। यह मृत्युलोक जिसमें हम वास करते हैं इसकी हर वस्तु नश्वर है, पर सतिगुरु जो अमृत हमें प्रदान करता है, उसकी एक बूँद भी हमें इस विनाश के दुःखों से बचा लेगी। सतिगुर का यह अमृत हमें सदा के लिए अमर कर देता है।
पिताजी फिर फ़रमाने लगे-
सतिगुरु जिसको भी अमृत की एक बूँद बख़्श देता है उसे सदा के लिए देवविजयी (सुरजीत) कर देता है। 
बाबा नंद सिंह साहिब ने फ़रमाया- 
जिसने भी इस अमृत रस को...
सतिगुर सेवि अम्रित रसु चाखे
...चख लिया है, उसका अपना अलग अस्तित्व रहता ही नहीं।

गुरु नानक दाता बख़्श लै। बाबा नानक बख़्श लै 

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