एक बार श्री गुरु तेग बहादुर साहिब बनारस में ठहरे हुए थे। वहां, संतों का एक समूह उनके पास आया। ये संत नौवें गुरु नानक की आध्यात्मिकता का परीक्षण करना चाहते थे। संतों को अपने आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति पर बहुत गर्व था। इसलिए वे गुरु के पास धार्मिक चर्चा करने आये थे।
अंतर्यामी सतिगुरु जी ने बहुत विनम्रता से चर्चा शुरू करने से पहले उनके आध्यात्मिक ज्ञान के लिए यह शब्द पढ़ा।
रागु गउड़ी महला ९ ॥
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साधो मन का मानु तिआगउ ॥
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कामु क्रोधु संगति दुरजन की ता ते अहिनिसि भागउ ॥१॥ रहाउ ॥
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सुखु दुखु दोनो सम करि जानै अउरु मानु अपमाना ॥
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हरख सोग ते रहै अतीता तिनि जगि ततु पछाना ॥१॥
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उसतति निंदा दोऊ तिआगै खोजै पदु निरबाना ॥
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जन नानक इहु खेलु कठनु है किनहूं गुरमुखि जाना ॥२॥१॥
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 219
इस शब्द के अर्थ इस प्रकार हैं:- हे पवित्र जनों! अपना अहंकार त्याग दो, काम, क्रोध और बुरी संगति से दूर रहो। दुख-सुख, मान-अपमान को समान समझो। प्रशंसा और निन्दा दोनों का त्याग करो। यह बहुत कठिन मार्ग है, इस मार्ग पर कोई विरला व्यक्ति, गुरुमुख ही चलता है। विनम्रता के पुँज, गुरु जी, इस श्लोक में फरमाते हैं- एक संत के लिए, अपने संतत्व के गौरव और अहंकार को न त्यागना ही उसके मार्ग में एकमात्र बाधा है। जो संत अपनी विद्या और अहंकार से प्रेरित होकर गुरु के पास आये थे, वे गुरु के आध्यात्मिक वचन सुनकर आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने गुरु जी के सामने शीश झुकाया और बिना किसी चर्चा के लौट गये। जो संत अहंकार पर विजय नहीं पा सका, वह काम और क्रोध पर कैसे विजय पा सकता है? वह इस दलदल से कैसे बाहर निकल सकता है? वह मान-अपमान, दुःख-सुख, और प्रशंसा-निंदा की परस्पर विरोधी शक्तियों से कैसे बच सकता है? अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। यह एक महा रोग है जो व्यक्ति को अमरत्व प्राप्त करने में बाधा बनती है। जिहि प्रानी हउमै तजी करता रामु पछानि ॥
| कहु नानक वहु मुकति नरु इह मन साची मानु ॥ |
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, भाग 1427 श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी फरमाते हैं - जिसने अपने अहंकार को मार दिया है और सभी चीजों का कर्ता प्रभु सृजनहार को ही मानता है। उसने जीवन से मुक्ति प्राप्त कर ली है। (गुरु) नानक साहिब फरमाते हैं- यह परम सत्य है। अहंकार का त्याग करने वाला जिज्ञासु मैं-मेरी की भावना से मुक्त हो जाता है और ईश्वर को कर्ता के रूप में जानता है। उसकी मैं मर चुकी है। वह कोई भी काम 'मैं' की भावना से नहीं करता। वह जीवनमुक्त है। जीवनमुक्ति की इस अवस्था में 'मैं' का भाव नहीं रहता। वह तो केवल प्रभु को ही कर्ता जानता है। उसमें कोई इच्छा नहीं रहती और 'मैं' का कोई विचार ही नहीं आता। वह सर्वत्र केवल सृष्टिकर्ता परमेश्वर की लीला ही नज़र आती है। नोट - जीवन-मुक्त साधक मृत्यु से पहले ही मर चुका होता है। यह मृत्यु उसके 'मैं' की होती है। यह मृत्यु उसकी पृथक अस्तित्व और पहचान की मृत्यु है। यह उसके भटकते विचारों की मृत्यु है। वस्तुतः यह अवस्था मानव आत्मा के परमात्मा में विलय की अवस्था है।
इस पवित्र शब्द में, सच्चा गुरु संतों और महात्माओं को एक अलौकिक शिक्षा दे रहा है कि एक संत के लिए सबसे कठिन काम अपने संतत्व के अभिमान को त्यागना है। कोई विरला ही इस बाधा को पार कर पाता है। गुरु नानक के दर पर केवल मुर्दे ही स्वीकार किये जाते हैं। साधू मुर्दा ही होना चाहिए और जो संत मर चुका होगा उसके लिए स्तुति और निंदा दोनों एक समान हैं। मुर्दे को किस बात पर मान है?
बाबा नंद सिंह जी महाराज |
गुरु नानक दाता बख़्श लै, बाबा नानक बख़्श लै।
www.srigurugranthsahib.org
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