अमृतधारी सिक्ख का आचरण




(यह घटना एक सीनियर सब-जज ने बताई है, जिसने पहली बार उनके दर्शन किए हैं)।
 
झंग मघियाणे के रेलवे स्टेशन से बाबा नंद सिंह साहिब ने गाड़ी पकड़नी है।
विशाल संगत इकट्ठी हो गई है। गाड़ी के आने में अभी विलंब था 

बाबा नंद सिंह साहिब प्लेटफार्म पर विराजमान हैं। बाबाजी के चारों तरफ संगत बैठ गई है। 

बाबा जी अमृत का महत्त्व बता रहे हैं-
जिस  सिक्ख ने अमृत छका है, अमृतधारी है, वह मर्यादा में रहता है और गुरु परायण है, उस सिक्ख की पदवी क्या है?

उन्होंने फिर फ़रमाया- 
देवता, सुर, नर, मुनि-जन, सब इस पदवी की कामना करते हैं पर उस तक पहुँच नहीं सकते।

(जिस  सिक्ख ने अम्रित छक्या है, अमृतधारी है, रहिणी विच रहंदा है, गुरु पराइण है, उस सिक्ख दी पदवी की है? 
फिर फ़रमाया- देवते, सुर, नर, मुन, जन इह सभ इस पदवी नूं लोचदे हन पर पुज नहीं सकदे।)


बाबा जी फ़रमाने लगे- जिस समय सिक्खों पर मुसीबतों के पहाड़ टूटने लगे, सिक्खों के सिरों का मोल लगना शुरू हो गया, तब सिक्खों को जंगलों में छुपकर वक्त काटना पड़ा। उन्हें अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए गाँव में जाना पड़ता था। कई बार ऐसे अवसर भी आए कि उन्हें पकड़ने के लिए वहाँ छापे डाले गए। गाँव वाले अमृतधारी सिक्ख के आचरण का बहुत मान करते थे। जब छापे पड़े तो ऐसा अवसर भी आया कि गाँव वालों ने सिक्खों को अपनी बेटियों के साथ सुला दिया और यह कहा कि हमारा दामाद सोया हुआ है। 

बाबा नंद सिंह साहिब फ़रमाने लगे कि-
ऐसा अमृतधारी सिक्ख, जो आचरण में पूरा है, गुरु परायण है और जिसकी वृत्ति गुरु के चरणों में है, सपने में भी ऐसे सिक्ख के मन पर लेशमात्र भी काम-वासना-का प्रभाव नहीं हो सकता।
 
(उस अमृतधारी सिक्ख, जेहड़ा रहिणी विच पूरा है अते गुरु पराइण है, जिसदी बिरती गुरु चरनां विच है, उस उत्ते सुपने विच वी लेस मात्र काम दा असर नहीं हो सकदा।)

वे किस सिक्ख की अवस्था बता रहे हैं?
 
उसकी, जिसने गुरु गोबिंद सिंह साहिब के द्वारा बख़्शीश किया हुआ अमृत पिया है, 
सेवन किया है।



बाबा नंद सिंह साहिब के पास दो सेवकों ने हाथ जोड़कर विनती की कि गरीब निवाज हमें अपनी निजी सेवा में रख लो। हमने विवाह नहीं करवाना। हम आपकी सेवा करेंगे। हमें विहंगम (ब्रह्मचारी सेवक) बना लो। 

बाबा नंद सिंह साहिब आगे से क्या फ़रमाते हैं-

आपने गृहस्थ मार्ग अपनाना है, राजयोग करना है। गृहस्थ मार्ग पर चलते हुए सेवा करनी है।’ पर इससे आगे जो कुछ उन्होंने कहा वह यह कि जो ‘त्याग है, जो कुर्बानी (बलिदान) है, प्रेम है इसकी परीक्षा (परचा) केवल साधुओं, दरवेशों और फ़कीरों के लिए ही नहीं है,बल्कि इसकी परीक्षा (परचा) तो गृहस्थियों  को भी देनी पड़ती है। ऐसे अवसर तो गृहस्थी के जीवन में भी आते हैं।

 

बाबा नंद सिंह साहिब ने फ़रमाया कि-

जिस समय त्याग, कुर्बानी और प्रेम के परख (परीक्षा) का अवसर आ जाए, उस समय गुरु साहिबान के द्वारा आचरित मानकों (पूरनों) को याद कर लेना। गुरु गोबिंद सिंह साहिब ने तो अपना सर्वस्व (सरबंस) कुर्बान कर दिया, न्योछावर कर दिया उस समय प्रेम, त्याग और कुर्बानी (बलिदान) देने में पीछे नहीं हटना।

 (तुसी गृहस्थ मार्ग अपनाउणां है, तुसी राजयोग करणा है,गृहस्थ मार्ग विच रहंदे होए सेवा करणी है 

पर अग्गे जो केहा उह एह है के-

       जो त्याग है, जेहड़ी कुरबानी है, जेहड़ा प्रेम है, इसदा परचा सिर्फ साधुआं, दरवेशां, फ़कीरां वास्ते ही नहीं है, इह परचा ग्रिहस्थियां नूं वी पैंदा है, इह मौके ग्रिहस्थी दी ज़िन्दगी विच वी आउंदे हन।
 फुरमाइया के- जिस वेले त्याग, कुरबानी अते प्रेम दा परचा पै जाए, गुरु साहेबान दे पूरनेआं नूं चेते कर लैणा। गुरु गोबिंद साहिब ने तां आपणा सारा सरबंस ही वार दित्ता, न्योछावर कर दित्ता। उस वेले त्याग कुरबानी अते प्रेम विच चूकणा नहीं।)

यह उपदेश बाबा नंद सिंह साहिब दे रहे हैं 
अमृतधारी सिक्ख की, मर्यादा वाले सिक्ख की अवस्था बतला रहे हैं, और साथ में दशमेश पिताजी द्वारा बख़्शी हुई उस दात की अवस्था भी बतला रहे हैं जो त्याग, कुर्बानी और प्रेम के बिना नहीं मिल सकती। 

 साधसंगत जी!

बाबा नरिन्दर सिंह जी ने समझाते हुए बताया -
जिसको भी वास्तविक प्रेम होगा (स्वार्थी प्रेम नहीं, अपने मतलब का प्रेम नहीं), जिसको भी ऊँचा और पवित्र (सुच्चा) प्रेम होगा वही सतिगुरु पर कुर्बान हो सकता है। वे प्रेम की दूसरी रूपरेखा बताते हैं और वह है कुर्बानी। वही प्यारे कुर्बान हुए हैं जो सतिगुरु परायण थे। जो सतिगुरु की प्रीति में कुर्बान हुए वही उनके सच्चे आशिक थेऐसे प्यारों ने ही कुर्बानी दी।
 

जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ।। 
सिरु धरि तली गली मेरी आउ।। 
इतु मारगि पैरु धरीजै।।
सिरु दीजै काणि न कीजै।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-1412
 
गगन दमामा बाजियो परओि नीसानै घाउ।।
खेतु जु मांडियो सूरमा अब जूझन को दाउ।। 
सूरा सो पहिचानीऐ जु लरे दीन के हेत।। 
पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेतु।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-1105

गुरु नानक दाता बख्श लै,

बाबा नानक बख्श लै।

(Gobind Prem)


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