विनम्रता के पुंज - गुरु अर्जुन देव जी

दासन दास रेणु दासन की जन की टहल कमावउ ॥

सरब सूख बडिआई नानक जीवउ मुखहु बुलावउ ॥२॥

एक बार बाबा नंद सिंह जी महाराज के पवित्र मुखारविन्द से ज्ञान-अमृत की धारा इस प्रकार निकली-

श्री गुरु अर्जुन देव जी के गुरु-गद्दी पर विराजमान होने की खबर देश-देशान्तर में फैल गयी। दूर-दूर से श्रद्धालु संगते पाँचवे गुरु नानक - श्री गुरु अर्जुन देव के दर्शनों के लिए अमृतसर में आनी शुरु हुईं। गुरु जी के दर्शन के लिए काबुल की संगत भी अमृतसर की ओर आ रही थी। दर्शनों के लिए व्याकुल हुई संगत ने आख़िरी दिन सुबह-सवेरे यह अरदास-कामना की कि वे शाम के दीवान में गुरु साहब के दर्शनों के बाद ही लंगर का प्रसाद लेंगे। ऐसा विचार करके वे अपने आख़िरी पड़ाव से शीघ्रता से रवाना हुए। पर वृद्ध पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के साथ होने के कारण वो संगत जब श्री हरमन्दिर साहब से कुछ मील दूरी पर थी, तो रास्ते में ही रात पड़ गयी। दिन के सफर से वे स्वयं को थके-थके और भूखे महसूस कर रहे थे।

इधर श्री गुरु अर्जुन साहब जी अपनी जीवन-संगिनी, माता गंगा जी को अपने हाथ से तरह-तरह के भोजन पदार्थ तैयार करने के लिए कह रहे थे। भोजन सामग्री तैयार हो गयी। श्री गुरु अर्जुन देव और माता गंगा जी ने भोजन-पानी सहित सारी सामग्री अपने सिर पर उठा ली और नंगे पैर ही उस स्थान की ओर चल पड़े, जिस स्थान पर काबुल की संगत ने पड़ाव किया हुआ था। भूख-प्यास और यात्रा से थकी-हारी संगत को गुरु जी और माता जी ने भोजन खिलाकर तृप्त किया। थका-मांदा एक वृद्ध श्रद्धालु जैसे-तैसे अपने हाथों से अपनी टांगो को दबा-सहला रहा था। श्री गुरु अर्जुन साहब ने दोनों हाथ जोड़ते हुए बड़ी विनम्रतापूर्वक इस सेवा को करने की आज्ञा लेकर उस बुजुर्ग की टांगों को दबाना-सहलाना शुरु किया। गुरु जी और माता गंगा जी सारी रात संगत की सेवा में जुटे रहे और पंखे से हवा करने की सेवा भी करते रहे। 

आज इसी स्थान पर गुरु जी की पवित्र याद में ‘गुरुद्वारा पिपली साहिब’ सुशोभित है।

दिन निकलते ही सारी संगत श्री हरिमन्दिर साहिब की ओर चल पड़ी। श्री हरिमन्दिर पहुँचकर सारी संगत ने अपने जोड़े (चरणपादुकाएँ) उतार दिये। संगत के जत्थेदार ने चरणपादुकाओं और सामान की रखवाली के लिए संगत में से किसी एक से रुकने का निवेदन किया पर हर व्यक्ति पाँचवें गुरुजी के दर्शन करने के लिए उतावला था। इस स्थिति को देखकर गुरु अर्जुन साहिब ने हाथ जोड़कर सेवा के लिए अपने-आप को प्रस्तुत कर दिया। 

संगत गुरु जी के दर्शनों के लिए अन्दर चली गयीं। स्पष्ट है कि गुरु जी अपने सिंहासन पर विराजमान नहीं थे। यह देखकर जत्थेदार ने बाबा बुड्ढा जी से गुरु जी के बारे में पूछा तो बाबा बुड्ढा जी ने बताया कि काबुल से आ रही संगत की सेवा करने के लिए गुरु जी और माता गंगा जी कल ही चले गए थे और अभी तक वापिस नहीं आए है। जत्थेदार ने बाबा बुड्ढा जी को बताया कि पिछली रात एक बहुत ही विनम्र और सीधे स्वभाव के स्त्री-पुरुष, भोजन-पानी लेकर आए थे और सारी रात वे संगत की सेवा करते रहे थे। 

जत्थेदार ने आगे कहा कि वे उसी पुरुष को संगत की चरणपादुकाओं और सामान की रखवाली करने के लिए वहीं बाहर बिठाकर आए हैं। इतना सुनते ही बाबा बुड्ढा जी सहित सारी संगत बाहर की ओर चल पड़ी।

विनम्रता के पुंज गुरु अर्जुन देव जी रुहानी मस्ती और आनंद में डूबे संगत के जोड़े साफ़ कर रहे थे। दिल को हिला देने वाली इलाही नम्रता की हद देखकर बाबा बुड्ढा जी सहित सारी संगत व्यथा से चीखें मारकर रो पड़ी! 

अपनी आँखों से निरन्तर आँसू बहाते हुए बाबा बुड्ढा जी ने विनती की- सतिगुरु  सच्चे पातशाह जी, आप हमारे परमेश्वर हैं! नाचीज़ गरीबों पर अपनी कृपा करो जी। 

विनम्र भाव से सेवा कर रहे मस्ती और आनंद में डूबे श्री गुरु अर्जुन साहिब जी बाबा बुड्ढा जी की ओर देखकर फ़रमाने लगे- 

सत्कारयोग्य बाबा बुड्ढा जी, अपने प्यारे गुरु नानक के लाडले बच्चों की चरणपादुकाओं की भाग्यप्रद सेवा मुझे कर लेने दीजिए।

संगत को पाँचवें गुरुजी के दर्शनों की दात प्राप्त हो गयी। रुहानी मौज में डूबकर संगत के जोड़े साफ करते हुए गुरु जी के इस रूप के संसारी संगत ने दर्शन किए। गुरु जी के प्रत्यक्ष दर्शन करती संगत के नेत्रों से आसुँओं की न समाप्त होने वाली एक नदी-सी बह रही थी। ऐसे दर्शनों से संगत के हृदय से ‘मैं और मेरी’ भावना के सभी विचार ख़त्म हो गए थे। उनको रुहानियत के सबसे बड़े पाठ अर्थात् ‘भक्ति में नम्रता और नम्रता में भक्ति’ की अनमोल दात प्राप्त हो गई थी। प्रेम, श्रद्धा और आश्चर्य में डूबी पवित्र संगत दिव्य नम्रता और प्रेम के सच्चे पैग़म्बर सतगुरु अर्जुन साहिब के चरणों में नतमस्तक होकर लेट गयी।

दया के सागर गुरु जी ने दिव्य नम्रता और संपूर्ण आध्यात्मिक समृद्धियों से भरे व सबके साझे ‘प्रेम धर्म’ के पवित्र ग्रंथ का जब सृजन किया और फिर जब मानव जाति के अथाह प्रेम में गुरु जी ने सर्वोच्च कुर्बानी दी, गर्म तवों पर बैठे, अपने शीश पर डाली गई तपती रेत को सहर्ष स्वीकार किया; तो मानव जाति को श्री गुरु अर्जुन साहिब के प्रत्यक्ष हरि (परमात्मा) होने का निश्चय हो गया। 

सदा अंग-संग होकर अपने उद्धारकर्त्ता श्री गुरु अर्जुन साहिब के ऋण को यह मानव जाति युग-युगान्तर तक नहीं चुका सकेगी।

गुरु नानक दाता बख्श लै,   

बाबा नानक बख्श लै।

 


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