खालसे का जन्म-दिन
साधसंगत जी, आज हम उस खालसे का जन्मदिन मना रहे हैं तो उस अमरगाथा का एक और सुनहरी पृष्ठ खोलकर हमें उसके दर्शन कर लेने चाहिए।
मेरे साहिब दशमेश पिताजी संदेश भेजते हैं, सारी संगत को बुलाते हैं। सारे सिक्ख हाजिर होते हैं। आनन्दपुर साहिब में, 80 हजार सिक्ख हैं जो प्रतीक्षा कर रहे हैं। सतिगुरु का इंतजार कर रहे हैं, वे उनके हुक्म की प्रतीक्षा में हैं।
सतिगुरु बाहर तशरीफ़ लाए हैं, सभी नमस्कार कर रहे हैं, माथा टेक रहे हैं।
किस तरह अपने कर कमलों से अमृत तैयार कर वे उनको अमृत छकाते हैं। और फिर सच्चे पातशाह आप उनसे अमृत प्रेम का सेवन करते हैं।
एको एकु सु अपर पर्मपरु खजानै पाइदा।।
भगति भंडार गुरि नानक कउ सउपे फिरि लेखा मूलि न लइआ।।
मेरे साहिब दशमेश पिताजी संदेश भेजते हैं, सारी संगत को बुलाते हैं। सारे सिक्ख हाजिर होते हैं। आनन्दपुर साहिब में, 80 हजार सिक्ख हैं जो प्रतीक्षा कर रहे हैं। सतिगुरु का इंतजार कर रहे हैं, वे उनके हुक्म की प्रतीक्षा में हैं।
सतिगुरु बाहर तशरीफ़ लाए हैं, सभी नमस्कार कर रहे हैं, माथा टेक रहे हैं।
साहिब पूछ रहे हैं - कि आप कौन हैं?
(संगत)- गरीब निवाज, हम सिक्ख हैं।
साहिब पूछते हैं- किसके सिक्ख?
(संगत)- सच्चे पातशाह,आपके सिक्ख।
(साहिब)- हम कौन हैं?
(संगत)- गरीबनिवाज, आप हमारे गुरु हैं।
इस रिश्ते को याद कराते हुए वे सिक्ख और गुरु के रिश्ते की पहचान को लक्षित करते हैं, एक परीक्षा लेते हैं।
सिक्ख और गुरु का सम्बन्ध है क्या?
इस पर फ़रमाते हुए कहते हैं- आज गुरु को अपने सिक्खों से एक जरूरत पड़ गई है।
सभी उठकर खड़े हो गए।
(संगत)- सच्चे पातशाह ! आदेश दो, हम हाज़िर हैं।
उनके हाथ ऊँचे करने की ही देर थी कि गुरु साहिब ने श्री साहिब (तलवार) निकाल ली है। ‘श्री साहिब’ (तलवार) लशकारे मार रही है।
वे फ़रमाने लगे- आज गुरु को एक सिक्ख के शीश की आवश्यकता है।
सारे सिक्ख बैठ गए। साधसंगत जी, वे सोच में पड़ गए।
साहिब ने फिर फ़रमाया- आज गुरु एक शीश माँगता है अपने सिक्खों से।
कैसा रिश्ता है?
गुरु नानक पातशाह के उस प्रेम के खेल का बयान करते हुए सच्चे पातशाह फ़रमाते हैं-
जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ।।सिरु धरि तली गली मेरी आउ।।इतु मारगि पैरु धरीजै।।सिरु दीजै काणि न कीजै।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-1412
जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ।... इस प्रेम की अमरगाथा को किस तरह बयान करते हैं? इस प्रेम में उसको पाने का क्या तरीका बताते हैं? गुरु नानक पातशाह के हुक्म को, दशमेश पिता किस प्रकार स्पष्ट कर रहे हैं?
गुरु को एक शीश की जरूरत है, एक शीश की माँग है।
एक अति विनम्र गरीब-सा दिखने वाला (गरीबड़ा) सिक्ख पीछे बैठा है, संगत के जोड़े साफ कर रहा है, वह उठकर साहिब के चरणों में पहुँचा है और श्री चरणों में अपना शीश भेंट कर दिया है, भाई दया सिंह जी ने। चार और बारी-बारी से उठे। अस्सी हजार में से सिर्फ पाँच ही उठे। पाँचों उठकर साहिब के चरणों में आए और आकर शीश भेंट कर दिए।
साहिब उनको बारी-बारी से अन्दर ले गए। अब उन पाँचों को, जो तली पर अपना शीश रखकर साहिब के चरणों में पहुँचे थे, वे बाहर ले आए। जिस वक्त संगत ने उन पाँचों के दर्शन किए तो संगत गद् गद् हो उठी। एक निराला स्वरूप है उनका, साहिब उन पाँचों को लाते हैं और संगत उनके दर्शन करती है।
फिर साहिब फ़रमाते क्या हैं?
जिन्होंने प्रेेम में अपने आप को भेंट कर दिया है, जिन्होंने कलगीधर पातशाह के साथ प्यार किया है, आज उसका मूल्यांकन (उसकी कदर) किस तरह प्राप्त करते हैं? दशमेश पिता उस प्रेम को किस तरह ‘जी आइयाँ’ कह रहे हैं?
साधसंगत जी, थोड़ा विचार करते हुए हम भी जागें, श्री गुरु नानक पातशाह के हुक्म पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का पहला हुक्म क्या है? हम प्रेम की झलक को अनुभव करने की कोशिश करें। साहिब पहले हुक्मनामे में क्या फ़रमाते हैं? मूल मंत्र के बाद जब जपुजी साहिब की पहली पौड़ी शुरू होती है- सोचै सोचि न होवइ जे सोची लख वार।
साधसंगत जी, अस्सी हजार की संगत बैठी है, जब शीश माँगा गया है तो सोच में पड़ गई है।
यह सोच है क्या?
मन तब तक सोचता है जब तक अपना है। जब मन भी गुरु के चरणों में अर्पित हो जाता है तो फिर सोचे कौन?
साधसंगत जी, ऐसी स्थिति में अर्पित भाव सोच से बहुत ऊँचा होता है। वह सोच की पकड़ में आता ही नहीं। अपने मन के कारण सारे सिक्ख सोचों में पड़े रहे, पर भाई दया सिंह इस सोच-विचार से परे हैं। वे उठे हैं, क्योंकि अपनी सोच-विचार छोड़ बैठे हैं। हथेली पे अपना सिर (शीश) रखकर वे गुरु के चरणों में पेश हो जाते हैं। वे गुरु के प्रेम में रंगे हुए हैं। गुरु को ही अपना सब कुछ अर्पण कर चुके हैं। फिर उस प्रेम को दशमेश पिता अपनी आलिंगन में ले लेते हैं।
किस तरह अपने कर कमलों से अमृत तैयार कर वे उनको अमृत छकाते हैं। और फिर सच्चे पातशाह आप उनसे अमृत प्रेम का सेवन करते हैं।
एको एकु सु अपर पर्मपरु खजानै पाइदा।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-1034
एक बूंद गुरि अम्रितु दीनो ता अटलु अमरु न मुआ।।भगति भंडार गुरि नानक कउ सउपे फिरि लेखा मूलि न लइआ।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-612
अम्रितु पीआ सतिगुरि दीआ।। अवरु न जाणा दूआ तीआ।।श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-1034
उनके प्रेम के वश में हुए प्रेम से तृप्त हो रहे हैं। प्रेम को ‘जी आइयाँ’ कह रहे हैं और अपने प्रेम से उनको तृप्त कर रहे हैं। साधसंगत से कहते हैं कि ये जो मेरे पाँच पिआरे हैं, ये मेरे हैं।
साधसंगत जी, जिस समय वे मेरे शब्द का उच्चारण कर रहे हैं तो गुरु गोबिंद सिंह साहिब के वे प्यारे हैं और गुरु गोबिंद सिंह साहिब उनके प्यारे हैं। उस समय प्यार एक हो गया है। और उस प्यार को नाम दिया है, खालसे का।
खालसा जी, जी आइआं नूं।खालसा जी, जी आइआं नूं।अज घड़ी सुभागी आई है,अज दिन वडभागी आया है।तेरा तिन सौ साला जनम दिवस,संगतां ने खूब मनाया है।खालसा जी, जी आइआं नूं,खालसा जी, जी आइआं नूं।
गुरु नानक दाता बख़्श लै।।
बाबा नानक बख़्श लै।।
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