निमाणिआँ दे माण - धंन धंन श्री गुरु अमरदास जी।




तीसरे गुरु नानक के अनमोल वचन सुनने के लिए संगत उसी मस्ती में चली जा रही है। 

सच्चे पातशाह के गुण गाती जा रही है। स्तुति करती जा रही है। 

जो वर गुरु अंगद साहिब ने गुरु अमरदास जी को दिए थे, उन्हीं का ज्ञान करते हुए संगत मस्ती में  लीन होकर गुरु अमरदास जी के चरणों में प्रणाम करती जा रही है। चरणों में प्रणाम करते हुए स्तुति कर रही है- 

निमाणिआँ दे माण सतिगुरु, 

निताणिआँ दे ताण सतिगुरु, 

निथाविआँ दे थाव सतिगुरु, 

निओटिआँ दी ओट सतिगुरु, 

निआसरिआँ दे आसरे सतिगुरु... 

एक लाचार गरीब कोढ़ी सड़क के उस तरपफ पड़ा है उसके कानों में मस्ती भरी आवाज आई। उस मस्ती को देखकर, उनकी उस दृढ़ता को देखकर और उनके इलाही शब्दों को सुनकर, जिन शब्दों को उस कोढ़ी ने सुना - 

निमाणिआँ दे माण धंन धंन श्री गुरु अमरदास जी। 

निताणिआँ द ताण धंन धंन श्री गुरु अमरदास जी। 

निओटिआँ दी ओट धंन धंन श्री गुरु अमरदास जी। 

निआसरिआँ दे आसरा धंन धंन श्री गुरु अमरदास जी। 

निथाविआँ दे थाव धंन धंन श्री गुरु अमरदास जी। 

धंन कहो सब धंन कहो गुरु अमरदास नु धंन कहो। 

धंन धंन श्री गुरु अमरदास जी, 

धंन धंन श्री गुरु अमरदास जी। 

इन शब्दों को सुनकर जाने क्या हुआ, जैसे मुर्दा रुह में जान पड़ गई हो। 

रास्ते में पड़ा एक कोढ़ी पूछता है- कहाँ जा रहे हो? किसके गुणगान कर रहे हो?

 एक सिक्ख ने उसे जवाब दिया - वे श्री ‘गोइंदवाल साहिब’ जा रहे हैं। निरंकार, अकाल पुरुष साहिब श्री गुरु अमरदास जी के चरणों में जा रहे हैं। उन्हीं के गुण गाते जा रहे हैं। 

वो फिर पूछता है- कौन सा रास्ता है? 

जवाब मिला - ये रास्ता सीधा उन्हीं के दर पर ले जाता है। 

लाचार कोढ़ी उनके पीछे घिसटना शुरु हो गया, घिसटते-घिसटते बहुत समय के बाद उस दर पर पहुँचा। सोच रहा है मैं तो कोढ़ी हूँ, मेरे शरीर से बदबू आती है, सड़ांध आती है। दूर से ही लोग नाक बंद करके निकल जाते हैं। 

निरंकार स्वरूप सच्चे पातशाह स्वयं निरंकार होकर भी आकार धारण करके इस जगत में आया है। अन्तर्यामी सच्चे पातशाह, मेहर करेंगे इस गरीब पर, इस कोढ़ी पर, आप ही दर्शन देंगे। 

यह सोचकर वह बाहर एक तरफ डेरा लगाकर बैठ गया और सच्चे पातशाह के बुलावे की प्रतीक्षा करने लगा। उनके दर्शनों के लिए वह बहुत उत्सुक था।

पर बहुत समय बीत गया। दरबार लगा हुआ है, साहिब सच्चे पातशाह विराजमान हैं सारी संगत बैठी है। 

गरीब निवाज पूछते हैं - कहीं कोई बाहर तो नहीं बैठा है? 

दो चार सिक्खों ने देखकर कहा- एक कोढ़ी डेरा लगाए बैठा है। 

सच्चे पातशाह! बाहर बड़ी दुर्गन्ध आ रही है। 

साहिब हुकम करते हैं - जिस जल से हम स्नान करते हैं स्नान के बाद वह जल गड्ढे (चुभचे) में चला जाता है, जाओ, उसी जल से उस कोढ़ी को स्नान कराकर सफेद चादर में लपेट कर उसे हमारे आगे ले आओ। 

सिक्ख गए, उन्होंने सच्चे पातशाह का संदेश सुनाया उसे सुनकर कोढ़ी के अन्दर जान पड़ गई। 

सिक्खों ने कहा-  प्रेमा! तुम्हें सच्चे पातशाह याद कर रहे हैं। 

उन्होंने उसे उसी पानी से स्नान कराकर, सपफेद चादर उढ़ाकर सच्चे पातशाह के सामने पेश कर दिया। कोढ़ी शुक्राने में दर्शन कर रहा है। दर्शन करते ही वह अपनी सुध-बुध भूल गया। सच्चे पातशाह, मेहर की नजर से उसकी ओर देख रहे हैं। 

उससे पूछते हैं - क्या चाहते हो? क्या माँगते हो? 

फिर आगे प्रेमा कोढ़ी कहता क्या है! 

वो कहने लगा- सच्चे पातशाह! गरीब निवाज! मैं इस दुनिया का सबसे धिक्कारा हुआ व्यक्ति हूँ। 

सच्चे पातशाह, गरीब निवाज! मैं अपाहिज शापग्रस्त ऐसा इन्सान हूँ जिसे लोगों ने उठाकर बाहर फेंक दिया है। दुनिया का तो कोई ‘मान’ होगा, गरीब निवाज पर मेरा इस संसार में कोई ‘मान’ नहीं। सच्चे पातशाह! दुनिया का तो कोई ‘ताण’ होगा पर मेरा कोई ‘ताण’ नहीं। 

गरीब निवाज़! सच्चे पातशाह! दुनिया की तो कोई ‘पत’ (इज्जत) होगी पर इस अपाहिज की कोई ‘पत’ नहीं। गरीब निवाज़! दुनिया की कोई ‘थाँ’ (स्थान) होगी पर यह प्रेमा ‘निथावाँ’ (बिना स्थानद्ध) है। 

सच्चे पातशाह! किसी न किसी का कोई न कोई है पर मेरा कोई नहीं। 

गरीब निवाज़, सच्चे पातशाह! तुमने रक्षा की थी उस गज (हाथी) की जिसको ग्राह पानी में खींचकर ले जा रहा था। वह हाथी बहुत बलवान था, उसने पूरी ताकत लगाई छुटकारा पाने की, पर जिस समय उसकी कोई भी कोशिश सफल नहीं हुई, सच्चे पातशाह! उसका बल कोई काम नहीं आया तो उसने गरीब निवाज़, आपके चरणों में विनती करके उसने आपको याद किया, आपके चरणों में उसने अपनी सूँड से तोड़ा हुआ फूल रखा तो आपने उसकी रक्षा की। सच्चे पातशह! गज तो ग्राह के चुगल से छूट गया। सच्चे पातशाह मेरे तो हाथ भी काम नहीं करते मैं तो आपके चरणों में फूल भी नहीं रख सकता। उनका तो कुछ न कुछ था, कोई न कोई था। उसका बल था, मान था। सच्चे पातशाह! न मेरा कोई मान है, न मेरे में कोई ताण है, न कोई बल है, गरीब निवाज़! मेरा तो कोई भी नहीं है। 

जिस समय रो-रोकर वह विनती कर रहा है, ये अरदास कर रहा है, उस समय साहिब की नजर उस पर पड़ रही है।  गुरु नानक की तो दृष्टि में ही मुक्ति है। गुरु नानक की तकणी (निगाह) में दरगाह की सारी बरकतें हैं। 

पर उस समय ये मेहरें (बरकतें) उसी की ओर बरस रही हैं। प्रेमा कोढ़ी पर पड़ रही हैं। नानक नदरी नदरि निहाल। प्रेमा कोढ़ी को यह भी पता नहीं कि वह जो ये विनतियाँ कर रहा है वे सच्चे पातशाह के चरणों में कर रहा है, वह चीखें मारकर बता रहा है कि उसका कोई भी नहीं। जिस वक्त वह यह कह रहा है उस समय उसकेऊपर क्या बीत रही थी। 

संगत देख रही है कि वो बिल्कुल नया निरोग होकर खड़ा हो गया एक ऐसे नौजवान के रूप में। ये वही नौजवान है जिसकी हालत कोढ़ होने से पहले की थी। वही खूबसूरत नौजवान रोए जा रहा है। उसको यह पता ही नहीं कि सच्चे पातशाह की दृष्टि का उस पर क्या असर हुआ है। 

जिस समय संगत में से किसी ने उसे हाथ लगाकर कहा कि तुम अपने आपको तो देखो। 

जिस समय प्रेमा कोढ़ी ने अपने आप को देखा तो शुक्राने में सच्चे पातशाह के चरणों में लिपट गया। उस समय वह सर ऊँचा करके स्वयं को देख रहा है तो सच्चे पातशाह पूछ रहे हैं - अब बताओ तुम्हारा कोई नहीं है ?

तो इस पर प्रेमा कहता है- 

मेरे सतिगुरु जी! मेरा ताँ सब कुझ तूंही तूू। हे सच्चे पातशाह! 

मेरा तां सब कुझ तूंही तूं। बाबा जी मेरा ताँ सब कुझ तूंही तूँ।’ 

मेरे सतिगुरु! मेरे तो सब कुछ आप ही हैं। बाबा जी मेरे तो सब कुछ आप ही आप हैं। 

फिर वह जिस दृढ़ता से यह पुकार करता है, उस समय संगत भी उसकी दृढ़ पुकार में उसके साथ होकर वही कुछ कहती है। आओ साध संगत जी! हम भी अपने सतिगुरु के चरणों में गिरकर अपनी हाजिरी लगवाएँ। जब गुरु नानक प्रसन्न होते हैं, रीझते हैं तो झोलियाँ भर देते हैं- 

जो सरणि आवै तिसु कंठि लावै इहु बिरदु सुआमी संदा।। 

बिनवंति नानक हरि कंतु मिलिआ  सदा केल करंदा।। 


गुरु नानकु जिन सुणिआ पेखिआ से पिफरि गरभासि न परिआ रे।। 

श्री गुरु ग्रंथ साहिब अंग 544 

प्रेमा कोढ़ी सच्चे पातशाह की शरण में आ गया है। जिस तरह मेरे साहिब, मेरे सतिगुरु अपने कंठ से लगा लेते हैं उस पर किस तरह बरकतें लुटा रहे हैं- 

चरन सरन गुर एक पैंडा जाइ चल सतिगुर कोटि पैंडा आगे होइ लेत है।। 

भाइ गुरदास जी

 गुरु अमरदास जी के चरणों की ओर वह कोढ़ी चला है, लुढक पड़ा है, घिसटते-घिसटते चरणों में पहुँच गया है तो साहिब किस तरह कितनी दूर जाकर उस प्रेमा कोढ़ी को अपने कंठ से लगा लेते हैं। 

साध संगत जी! यह सिक्ख और गुरु का रिश्ता है। धन्य है वो रिश्ता और धन्य है वे सिक्ख जिन्होंने भी इस रिश्ते को महसूस किया है, कमाया है। 

साध संगत! ये वो खुश किस्मत संगत ही बता सकती है, जिन्होंने गुरु नानक पातशाह और मेरे साहिब गुरु अमरदास जी के दर्शन किए हैं। ये तो प्रेमा कोढ़ी ही बता सकता है कि उसे कैसा आनंद प्राप्त हुआ है। सच्चे पातशाह ने प्रेमा पर ऐसी मेहर की कि वहीं एक गुरसिक्ख की पुत्री के साथ, उसे अपना ही पुत्र बनाकर उसका विवाह रचाया। उसको ‘नाम’ की दात बख़्शी और उसके बाद उसे दुनिया को ‘नाम’ देने योग्य बना दिया। उसको संत बना दिया 

साध संगत! मेरा साहिब जब प्रसन्न होता है, जब रीझता है तो इस तरह की बरकतें लुटा देता है। 

साध संगत जी! हमें भी क्या कोढ़ नहीं हुआ? मुझ सरीखे को क्या कोढ़ नहीं हुआ? 

हम भी विषय विकारों के कोढ़ से ग्रस्त हैं। 

हमें भी काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के कोढ़ हुए हैं। 

सच्चे पातशाह! हमें भी बख़्श दो। 

पंच दूत तुधु वसि कीते कालु कंटकु मारिआ।। 

श्री गुरु ग्रन्थ  साहिब अंग 918 

मेरेे पातशाह, गरीब निवाज़ बरकतों, के स्वामी स्वयं ही एक ओर जगह फरमाते हैं- 

ऐसो गुनु मेरो प्रभ जी कीन।। 

पंच दोख अरु अहं रोग 

इह तन ते सगल दूरि कीन।। 

श्री गुरु ग्रंथ साहिब अंग 716 

सच्चे पातशाह! मेहर करो, दया करो, गरीब निवाज इस हमारे कोढ़ को भी दूर कर दो। पर हमारा भी फर्ज फिर बनता क्या है? 

सच्चे पातशाह के चरणों में, प्रेमा कोढ़ी के पीछे खड़े होकर, साध संगत के चरणों में बैठकर नम्रता के साथ गुरु के आगे अन्तरात्मा से ये अरदास करनी बनती है, ऐसी अरदास कि हमारी आत्मा से ऐसी फरियाद उठे। 

गुरु नानक दाता बख्श लै,

बाबा नानक बख्श लै।

(Nanak Leela, Part 1)

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