सच्चा प्रेम

 


पिताजी ने दो-तीन बातें बताईं-

 प्रेम अपने आप में सम्पूर्ण है, प्रेम में कुछ और करने की ज़रुरत नहीं है।  


जो प्रेम में रंगा हुआ है, जो साहिब की इच्छा और उनके भाणे (रुचि) में आ गया है तथा हर समय जो साहिब को लक्षित कर ‘तूँ-ही-तूँ’ उचार रहा है वह सच्चा प्रेम कर रहा है। 

जिस समय हम कोई इच्छा रखते हैं, यह सोचते हैं कि हमारा लाभ हो और इसमें हमारा क्या हित होगा तो यह प्रेम नहीं है। 

हम कर्म तो कर सकते हैं, पर फल हमारे हाथ में नहीं है। फल तो गुरु के अधीन है, उसके हुक्म में है। फिर यदि गुरु की इच्छा में आ ही गये तो अपनी इच्छा कैसी ?

जिसे फल की आवश्यकता नहीं है वही सच्चा प्रेम कर रहा है। निष्कामता ही सच्चा प्रेम है। जो साहिब से प्रेम कर रहा है वह पूर्ण निष्कामता में होगा। 

उसके सारे क्रिया-कलाप निष्कामता से प्रेरित होंगे। वह तो शुद्ध प्रेम कर रहा है। जब वह किसी फल की इच्छा कर ही नहीं रहा तो वह कर्म भी नहीं कर रहा, समझो वह कर्म के बंधन से मुक्त हो गया है।

करम करत होवै निहकरम।।

करम धरम पाखंड जो दीसहि तिन जमु जागाती लूटै।।

निरबाण कीरतनु गावहु करते का निमख सिमरत जितु छूटै।।


श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-747 

करम करत होवै निहकरम।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग-274

गुरु नानक दाता बख्श लै,

बाबा नानक बख्श लै।

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