परम पद की अवस्था

गुरमुखि अंतरि सहज है मन चड़िया दसवै आकासि।।

 तिथै ऊंघ न भुख है हरि अम्रित नामु सुख वासु।।

नानक दुखु सुखु विआपत नही जिथै आतम राम प्रगासु।।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 1414

गुरु अमरदास जी ने गुरमुख की सहज अवस्था वाली आत्मिक अवस्थाओं के बारे बतलाया है। उनके अनुसार- 
गुरमुख सहज संतुलन एवं परम शांति में रहते हैं।
इस अवस्था में नींद व भूख नहीं सताती। 
जीव प्रभु के नाम की अमृत-फुहार में नित्य भीगता रहता है। 
गुरमुख प्रभु-कृपा के मण्डल में रहता है।
उस गुरमुख को दुःख-सुख प्रभावित नहीं करते जिस की आत्मा सदैव आध्यात्मिक आभा से प्रफुल्लित रहती है।

 एक सच्चे संत की आत्मा ‘अमृत नाम’ के आनंद से जुड़ी रहती है, उनकी आत्मा प्रभु की आभा से खिली होती है। वह प्रभु में सदा के लिए लीन हो जाती है। 

जिस प्रकार प्रभु नींद व भूख से ऊपर है, उसी तरह इस के साथ एकरूप हुआ गुरमुख भी इसी अवस्था में रहता है। 

प्रभु दुःख-सुख से परे है। इसी तरह उस में लीन वह गुरमुख, जिस की आत्मा में अलौकिक प्रकाश हो चुका हो, सतत आनंद की अवस्था में रहता है। उसको कोई दुःख-सुख व्याकुल नहीं करता।

प्रभु में सदा के लिए लीन, सच्चे व पूर्ण भक्त, शारीरिक सुखों से ऊपर उठ चुके होते हैं। नींद व भूख, प्रसन्नता व संताप, सुख व दुःख उन क समीप नहीं आते और न ही उन की शान्त अवस्था में ये बाधा डालते हैं। 

बाबा हरनाम सिंह जी महाराज व बाबा नंद सिंह जी महाराज 
जन्म से ही प्रभु-भक्ति में लीन रहते थे।

अमृत-नाम और आत्मप्रकाश के परम वरदान हैं- चरम संतुष्टि, पूर्णता और सब कुछ को समाहित करने वाली अवस्था। इस निराली व स्वावलम्बी आनंदस्वरूप अवस्था में नींद या भूख, प्रसन्नता या संताप सुख या दुःख के लिए कोई स्थान नहीं होता।

नाम-रस व आत्म-रस का आनंद स्वयं में पूर्ण है। इस परम आनंद से आत्मा को मिलने वाले दिव्य आहार की तुलना भोजन, भौतिक निद्रा और आराम से तो रंच-मात्र भी नहीं हो सकती।

ऐसा गुरमुख भ्रम के दलदल से पहले ही पार जा चुका होता है। उस अवस्था में माया उस को मोहित नहीं कर सकती क्योंकि वे माया का पर्दा उठा चुके होते हैं।

नाम-रस की पिपासा आत्म-रस की भूख और प्रेम-रस की सच्ची ललक से सभी सांसारिक भूखों व तृष्णाओं का पराभव हो जाता है।

सत्य मार्ग पर चलने वालों को जीवन के पोषण के लिए भोजन व नींद के कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है। स्वाद की तृष्णा व इन्द्रिय-सुखों पर विजय प्राप्त करने के लिए लम्बा जीवन और कई बार तो कई-कई जीवन व्यतीत करने पड़ते हैं। 

एक बार शमन करने पर भी ये तृष्णाएँ घात लगाए रहती हैं। मन में दुबकी रहती हैं और बाद में भक्ति में विघ्न डालती हैं। 

केवल गुरमुख ही या गुरु की कृपा से जिज्ञासु बना भक्त ही, इन को सदा के लिए काबू करके नाम-रस का तथा आत्म-रस का आनंद प्राप्त कर सकता है।

गुरमुख के मुख-मंडल पर नाम-रस और आत्म-रस की सहजता और आनंदानुभूति का प्रतिबिम्ब शांति एवं निर्मलता के रूप में रहता है। 

एक सच्चे साधक के मन से यह भाव सांसारिक तृष्णाओं को मिटा डालता है। सत्पुरुषों के चेहरों पर दिव्य प्रकाश की अनोखी शक्ति चमकती रहती है।

जब कोई जिज्ञासु (संत) एक बार इस परम पद की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, फिर यह अवस्था कभी कम नहीं होती, अपितु प्रभु-प्रीतम में अभेदता की यह अवस्था स्थायी बनी रहती है।

सूर्य कभी डूबता नहीं है। इसी प्रकार सच्चे गुरमुख के हृदय में नाम-रस तथा आत्म-रस का प्रकाश सदैव बना रहता है। नाम-रस का स्वाद लेने वाले व आत्मा के सरोवर में नित्य प्रति डुबकियाँ लगाने वाले गुरमुख सदैव जाग्रत अवस्था में रहते हैं

जब कि सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहने वाला मनुष्य वास्तविक रूप में सोया हुआ होता है तथा आत्मिक दृष्टि से मृत होता है।

गुरु नानक दाता बख्श लै,

बाबा नानक बख्श लै।


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