नाम जपना किसकी मजदूरी है?
नाम जपना किसकी मजदूरी है?
साध् संगत जी! बाबा नंद सिंह साहिब जी ने इस चीज को स्पष्ट किया कि-
नाम क्या है?
जिस तरह हम सभी नौकरी करते हैं?
कोई सरकार की नौकरी करता है, उसको उसकी मजदूरी अथवा वेतन मिल जाता है।
कोई दिहाड़ी की मजदूरी करता है तो कोई प्राइवेट नौकरी (गैर-सरकारी) करता है उन सबको मजदूरी और वेतन, पारिश्रमिक मिलता है।
बाबा नंद सिंह साहिब फरमा रहे हैं कि-
नाम जपना किसकी मजदूरी है?
वे बताते हैं कि-
नाम जपना गुरु नानक की मजदूरी है।
एक नौकर है, वह अपनी मजदूरी नहीं माँगता, तनख्वाह नहीं लेता पर मालिक की सेवा करता है। कभी भी मजदूरी न माँगकर वह कहता है मुझे तो केवल सेवा करनी है। आपके द्वारा किये गये भोजन का शेषांश मुझे मिल जाता है। आपके उतारे हुए कपड़े मुझे मिल जाते हैं, यही मेरे लिए पर्याप्त है।
इस स्थिति में वह मालिक अपने आपको उस सेवक का कर्जाई (कर्जदार) महसूस करता है कि इसने तो मुझसे कुछ लिया ही नहीं है, अब तो मैं इसका ऋणी हो गया हूँ।
फरमाने लगे कि-
गुरु नानक की मजदूरी ‘नाम जपना’ है।
इंसान नाम जपता है पर गुरु नानक से उसका मुआवजा नहीं मांगता, निरन्तर मजदूरी करता जाता है, परन्तु उसकी मजदूरी, पारिश्रमिक जमा कहाँ हो रहा है?
सांसारिक व्यक्ति की मजदूरी तो सांसारिक मालिक के पास जमा होती है, पर नाम जपने वाले की मजदूरी तो गुरु नानक के खजाने में जमा हो रही है। उस जमा के बदले वह कुछ मांगता भी नहीं और कुछ चाहता भी नहीं। कोई कामना, कोई वासना और किसी प्रकार का कोई स्वार्थ उसका है ही नहीं।
पिताजी कहने लगे कि-
उसके सेवा की पूँजी तो गुरु नानक पातशाह के खाते में जमा होती जा रही है।
बाबा नंद सिंह साहिब आगे बता रहे हैं कि-
जो सिक्ख नाम जप रहा है और मांगता भी कुछ नहीं उसे गुरु नानक के खजाने से जब मिलता है तो इस पारिश्रमिक का सूद-दर-सूद मिलता है।
इसका आशय समझाते हुए बाबा नंद सिंह साहिब जी बताते हैं कि-
यह सूद-दर-सूद है क्या?
मनुष्य तो अपनी हैसियत और सामर्थ्य के अनुसार नाम जपता है। निरंकार के सामने तो मनुष्य की हस्ती कुछ भी नहीं है। निरंकार अपनी हैसियत और सामर्थ्य के अनुरूप देता है। इसलिए निरंकार जब देता है तो सूद-दर-सूद देता है।
साध् संगत जी! बाबा नंद सिंह जी फरमाने लगे कि-
गुरुमुख ने जो ‘नाम जपा’ है तो निरंकार उसको अपने रंग में रंग कर उसे वापिस देता है।
फिर यह प्रेम की दात कैसे शुरु होती है?
वे एक ही चीज फरमा रहे हैं कि प्रेम का आश्रय क्या है?
हरि नामा हरि रंगु है हरि रंडु. मजीठै रंगु॥गुरि तुठै हरि रंगु चाड़िया फिरि बहुड़ि न होवी भंगु॥
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 731
फरमाया कि-
सिक्ख ने देना-ही-देना है, लेना कुछ नहीं। यदि लेने में पड़ गया है, कोई मुआवजा मांगता है, मजदूरी मांगता है, उसका कोई स्वार्थ है इसलिए कुछ मांग रहा है, फिर तो गुरु से उसकी कुछ भिन्नता है, गुरु से उसकी फिर जुदाई है।
पहली बात तो यह है कि प्रेम में तो देना-ही-देना है सब कुछ प्रेम करने वाले का है।
यदि सिक्ख गुरु से प्रेम करता है तो कुछ माँगने का तो सवाल ही नहीं उठता।
तनु मनु धनु सभु सउपि गुर कउ हुकमि मंनिऐ पाईऐ॥
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 918
यह तन-मन-धन आखिर किसका है?
क्या यह पदार्थ हमारे अपने हैं?
उसके ही बख़्शे हुए हैं। इसलिए यह सब कुछ उसी का है। जो अपने आपको सौंपता जाता है और साहब से कुछ मांगता ही नहीं।
पर जब साहिब प्रसन्न होते हैं, संतुष्ट होते हैं तो प्रेम की दात बख़्शते हैं, उसी समय प्रेम का स्वाद और नशा आता है।
साचु कहौ सुन लेहु सभै जिन प्रेम कीउ तिन ही प्रभ पाइउ।।
श्री गुरु गोबिन्द सिंह साहिब
गुरु नानक दाता बख़्श लै, बाबा नानक बख़्श लै।
(Nanak Leela, Part 1)
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