कोटि ब्रह्मण्ड को ठाकुर स्वामी
कोटि ब्रह्मण्ड को ठाकुर स्वामी
इसी घर मे एक दिन अमृत बेला में गुरु नानक निरंकार की स्तुति में कीर्तन हो रहा था। बहनें कीर्तन कर रहीं थीं और पिताजी पूरी तल्लीनता में बैठे उसे सुन रहे थे। उस दिन एक बड़ा चमत्कारिक खेल घटित हुआ है।
‘शबद’ पढ़ा जा रहा था-
कोटि ब्रहमंड को ठाकुरु सुआमी
सरब जीआ का दाता रे।।
प्रतिपालै नित सारि समालैइकु गुनु नही मूरखि जाता रे।।
मै मुरख की केतक बात है
कोटि पराधी तरिआ रे।।
गुरु नानकु जिन सुणिआ पेखिआ
से फिरि गरभासि न परिआ रे।
(श्री गुरु अरजुन देव जी)
वह कौन सी अवस्था होती है जब ‘तूं ही तूं’ का खेल चल रहा हो और ‘मैं’ का किसी को होश न हो। उस समय पिताजी ऐसी ही अवस्था से गुजर रहे थे और ध्यान में डूबे हुए थे। वह आनन्द और वह प्रेम जिसे वे भावित कर रहे थे, वह हम सब पर अपना प्रभाव छोड़ रहा था। उसी तरह हम सब उस आनन्द, मस्ती और खुमारी को अनुभव कर रहे थे। पिताजी की उस अवस्था का अनुभव हमें बाद में हुआ।
जिस समय कीर्तन का भोग पड़ा, उस समय बहनों ने पूछ लिया-
पापा जी, आज तो कमाल हो गया, आपकी अवस्था को देखकर ऐेसे लगा कि हम सब भी दरगाह में बैठे हैं।
उस समय पिताजी कहने लगे-
पुत्र आज बाबा नंद सिंह साहिब की अपार बख़्शीश थी, उसी बख़्शीश ने बहुत कुछ दिखाया।
बहनों ने विनती की कि हमें भी कुछ बताओ।
पिताजी के अनुभव को हम आपके साथ साँझा कर रहे हैं।
पिताजी कहने लगे- जिस समय आप पढ़ रही थीं...
कोटि ब्रहमंड को ठाकुरु सुआमीसरब जीआ का दाता रे।।
उस समय बाबा नंद सिंह साहिब फरमाने लगे- पुत्र, तुम गुरु नानक निरंकार के प्रकाश की उस परम सत्ता को,महानता को और परम भगवत्ता को देखना चाहते हो? वह प्रकाश क्या है, जो उस स्वरूप में आकर इस संसार के खेल को खेल गया है। निरंकार जब सबसे बड़ी दया इस संसार पर करता है जो स्वयं नाम और स्वरूप को धारण करके आता है, उनके उस पावन स्वरूप के दर्शन तो केवल उन्हीं को हो सकते हैं जिनके अन्दर और बाहर स्वयं गुरु नानक ही वास करते हों।
पिताजी कहने लगे-
बाबा नंद सिंह सहिब ने हमें गुरु नानक पातशाह के प्रकाशस्वरूप दिखाया। गुरु नानक पातशाह के उस प्रकाश के रोम-रोम में... हरेक रोम में एक ब्रह्माण्ड देख रहे हैं। करोड़ों ही ब्रह्माण्ड हैं।
सरब जीआ का दाता रे।।
उस समय फिर दाता है कौन?
वही प्रकाश, वही निरंकार है।
उस समय बाबा नंद सिंह साहिब हमें दिखा रहे हैं कि हरेक ब्रह्माण्ड में, सूर्य और चन्द्रमा चमक रहे हैं। हरेक ब्रह्माण्ड में पर्वत, सागर, पवन, आकाश, वनस्पति, हरियाली और सभी जीव-जन्तु अपना-अपना खेल खेल रहे हैं। और ये सभी उस एक के अनुशासन में विचर रहे हैं, सभी संसार में विचर रहे हैं, ये लाखों आकाश और पाताल विचर रहे हैं, उस समय उनके एक-एक कण से मध्ुर रसीली और ऐसी मस्त करने वाली ध्वनि उठ रही है जो लोकोत्तर है, गगनमयी है; और वह ध्वनि हर गगन से उठ रही थी। जो कुछ देखा, सुना और महसूस किया वह तो कमाल ही कमाल था।
धनं-धनं गुर नानक, धनं-धनं गुरु नानक,तूंही निरंकार, इक तूंही निरंकार।।
धनं-धनं गुर नानक, धनं-धनं गुरु नानक,तूंही निरंकार, इक तूंही निरंकार।।
धनं-धनं गुर नानक, धनं-धनं गुरु नानक,
तूंही निरंकार, इक तूंही निरंकार।।
गुरु नानक दाता बख्श लै,
बाबा नानक बख्श लै।
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